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बिहार में बीजेपी जब तक रही तभी तक विकास हुआ: अमित शाह

amit-saha_650_101615035903उन्हें चुनावी रणनीति बनाने में माहिर शख्स माना जाता है. लोकसभा चुनाव की ऐतिहासिक जीत के कर्णधार बने तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें मैन आफ द मैच के खिताब से नवाजा. वे स्वभाव से रूखे लेकिन बेहद मुखर और काम के प्रति जुझारू हैं. इन दिनों उनकी रणनीति सिर्फ और सिर्फ बिहार विधानसभा चुनाव पर केंद्रित हो चुकी है. उन्हें एहसास है कि यह चुनाव कई मायनों में लोकसभा और उसके बाद के चुनावों से अलग है जो देश और बीजेपी की राजनीति की नई पटकथा लिखेगा. टीवी की आवाज बंद रख प्रधानमंत्री मोदी की रैली का सीधा प्रसारण देखते हुए अपने आधिकारिक आवास 11 अकबर रोड पर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इंडिया टुडे के एडिटर अंशुमान तिवारी और विशेष संवाददाता संतोष कुमार से खास बातचीत की. उन्होंने बीजेपी का यशोगान करने की बजाए उन तमाम तीखे सवालों का सहजता से जवाब दिया, जिसको लेकर पार्टी लगातार निशाने पर है. पेश है बिहार की चुनावी रणनीति समेत आरक्षण, सरकार, नौकरशाही, गोमांस, संगठन, परिवारवाद, कालाधन, आधार कार्ड पर यू टर्न जैसे विभिन्न मुद्दों पर उनसे बातचीत के अंशः

बिहार चुनाव के जो भी नतीजे आएं, संगठन और सरकार पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
नतीजे को लेकर आपके मन में संदेह हो सकता है. मैं बिहार में 22 जिलों में होकर आया हूं. लाखों लोगों से मिला हूं, बीजेपी के पक्ष में बड़ी लहर है और तीसरे चरण का चुनाव आते-आते लहर सुनामी में तब्दील हो जाएगी. हमारी जीत सुनिश्चित है. बीजेपी पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, यह आकलन चुनाव बाद ही हो सकता है.

बीजेपी जीत के प्रति आश्वस्त है तो इतनी ताकत क्यों झोंकनी पड़ी है?

मुझे लगता है कि चुनाव अभियान को देखने का यह नजरिया सही नहीं है. हम विचारधारा के आधार पर चलने वाली पार्टी हैं. चुनाव हमारे लिए महोत्सव होता है, चुनाव हमारे विचारों और सिद्धांतों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का एक जरिया होता है. इसका हमेशा चुनावी जीत या हार से मतलब नहीं होता है. जब जनसंघ के जमाने में हमारी जमानत जब्त हो जाती थी तब भी जितने कार्यकर्ता थे, इतना ही परिश्रम करते थे. यही सवाल मुझसे यूपी, गुजरात, महाराष्ट्र सभी जगह पूछे गए लेकिन सभी जगह हम जीते हैं. ज्यादा लोगों को संपर्क में लगाना बहुपक्षीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अच्छी बात है.

कहा जाता है कि माइक्रो मैनेजमेंट के मामले में अमित शाह को महारत हासिल है. तो दिल्ली चुनाव और बिहार चुनाव के माइक्रो मैनेजमेंट में क्या अंतर है?

देखिए, दोनों राज्य ही अलग प्रकार के हैं. दिल्ली 85 फीसदी शहरी क्षेत्र वाला है तो बिहार 85 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र वाला. स्वाभाविक रूप से दोनों की रणनीति में बदलाव होगा.

बिहार का चुनाव शुरू हुआ था विकास के मुद्दे पर, लेकिन बाद में जाति पर आ गया. क्या आपको लगता है कि मतदान होते-होते जाति ही अहम हो जाएगी और विकास पीछे छूट जाएगा?
जहां तक बीजेपी का सवाल है तो सारे भाषणों, कॉन्फ्रेंस का विश्लेषण कर लीजिए तो हमने विकास को ही मुद्दा बनाया है. चूंकि बिहार में एक अपवित्र गठबंधन हुआ है, जिसे देश 15 साल के जंगलराज के नाम से जानता है और बीजेपी ने नीतीश कुमार के साथ मिलकर उसे खत्म किया था. अब नीतीश उस जंगलराज के मुखिया के साथ गठबंधन कर चुके हैं. तो इस गठबंधन से बिहार का विकास नहीं हो सकता, यही हमारा कहने का तात्पर्य है.

तो क्या बीजेपी की रणनीति में जाति कोई फैक्टर नहीं रहा है, टिकट बंटवारे से लेकर सभी कुछ विकास पर ही रहा?
आज बीजेपी का संगठन कुल मिलाकर सर्व समावेशक है. जिसमें समाज के हर हिस्से का प्रतिनिधित्व है. स्वाभाविक रूप से हम जिताऊ को एक पैमाना मानते हैं क्योंकि हमारे पास समाज के सभी तबकों के कार्यकर्ता-नेता उपलब्ध हैं तो जिताऊ उम्मीदवार में स्वाभाविक रूप से जाति आ जाती है, लेकिन वह हमारा कार्यकर्ता है.

लेकिन आपने बिहार में जितने उम्मीदवार उतारे उसमें 40 फीसदी सवर्णों को टिकट दिया, जिनकी आबादी 16 फीसदी है?
यही बताता है कि हमने जाति को महत्व नहीं दिया है. (थोड़ा रुककर..) आप समझ रहे हैं ना मैं क्या कह रहा हूं.

बिहार में जमीन पर दलित, पिछड़ों में अलग-अलग ध्रुवीकरण की तस्वीर दिख रही है…
इस ध्रुवीकरण की बात लुटियंस जोन तक ही है, नीचे नहीं. अगर इसी को देखना है तो मैं समझाता हूं. अतिपिछड़ों, दलितों और महादलितों को टिकट बीजेपी के घटक दलों ने ज्यादा दिया है. चूंकि महागठबंधन ने एक ही जाति के लोगों को काफी ज्यादा संख्या में टिकट दे दिया है और उसे अति पिछड़ों से न मिलाते हुए पिछड़ा-अति पिछड़ा करके आंकड़े देते हैं और लोग गहराई में जाते नहीं हैं, इसलिए इतनी भ्रांति फैली है. 

चुनाव की दिशा आरक्षण और गोमांस की बहस की तरफ मुड़ती दिख रही है. एक पक्ष आरक्षण की बात तो दूसरा पक्ष गोमांस खाने और न खाने वालों में से चुनने की बात कह रहा है.

आप बताइए, गोमांस का मुद्दा किसने उठाया? हम पर क्यों आरोप कर रहे हैं. तुष्टिकरण करने के लिए गोमांस का मुद्दा हमने नहीं उठाया, हमने तो सिर्फ जवाब दिया.
 
 लेकिन यूपी से उठा मुद्दा बिहार पहुंचा और मुद्दा बन गया…
तो हमने उठाया क्या? बीजेपी के कार्यकर्ता ने उठाया क्या? गोमांस का मुद्दा हमने नहीं उठाया. अगर सामने वाला कोई बयान देगा तो हम भी जवाब देंगे.

आरक्षण पर संघ प्रमुख का बयान तो आया था…

आरक्षण का मुद्दा भी हमने नहीं उठाया. भागवत जी ने ऐसा कोई मुद्दा नहीं उठाया, उन्होंने संघ की ओर से उसे पहले ही स्पष्ट कर दिया है.

जम्मू-कश्मीर विधानसभा में बीजेपी के विधायकों ने एक निर्दलीय विधायक को विधानसभा के भीतर बीफ खाने के मामले में पीट दिया, यह कौन सी संस्कृति है?
बीजेपी विधानमंडलों और संसद के सदनों में इस तरह की घटना की निंदा करती है, भत्र्सना करती है. हम इसका समर्थन नहीं करते हैं.

दादरी की घटना पर बयानबाजी हुई, फिर पीएम मोदी को कहना पड़ा कि नेताओं की बयानबाजी पर ध्यान नहीं देना चाहिए तो सवाल यह है कि शीर्ष नेतृत्व जब असहमति जता रहा है, फिर भी 15 महीनों में कुछ सांसद-नेता ऐसी बयानबाजी करते रहे हैं. तो क्या पार्टी में अनुशासन की कमी आ रही है?

घटना के बाद दादरी में सबसे पहले कौन गया? राहुल गांधी गए, फिर अरविंद केजरीवाल गए, बाद में अकबरुद्दीन ओवैसी गए. बीजेपी की ओर से एक ही नेता गए महेश शर्मा जो वहां के स्थानीय सांसद हैं. कौन मुद्दा बना रहा है?

बनारस में योगी आदित्यनाथ का बयान कि अगर बकरी का खून बहाया जा सकता है तो मूर्ति विसर्जन में क्या आपत्ति है?
देखिए, योगी जी का अपना एक मत होता है. लेकिन मेरा मानना है कि वहां संतों पर लाठी चार्ज नहीं होना चाहिए था. प्रशासन को मर्यादा रखनी चाहिए थी.

आपने कहा था कि बीफ एक फूड हैबिट हो सकता है, लेकिन भावनाओं का ख्याल रखना चाहिए. गोहत्या के खिलाफ सहमति से कानून की बात भी कही थी, जैसे कुछ राज्यों में बने हैं. तो क्या केंद्र सरकार कोई राष्ट्रीय कानून का मसौदा ला रही है?
बीजेपी की जहां-जहां राज्य सरकारें हैं वहां गोहत्या पर प्रतिबंध तो लगाया ही है. मुझे लगता है कि धीरे-धीरे हम एक-एक करके राज्य जीत ही रहे हैं तो खुद ही सब जगह हो जाएगा. (हंसते हुए…) अब बिहार जीतेंगे तो वहां भी हो जाएगा.

बिहार में आप लोगों ने नीतीश से ज्यादा लालू पर हमला किया है. क्या नीतीश की छवि की वजह से मुद्दा नहीं चल पाता?
नहीं, हमें लगता है कि मीडिया या तो हमारी बातों को समझ नहीं पाया या समझकर भी समझना नहीं चाहता. हमारा मुद्दा यही है कि नीतीश जब लालू के साथ जाते हैं तो विकास नहीं हो सकता. लालू के साथ नीतीश कुमार अगर विकास कर सकते थे अलग क्यों हुए? साथ ही तो थे पहले. जंगलराज की वजह से अलग हुए. आज क्या हो रहा है, क्या परिवर्तन आ गया है. सिर्फ सत्ता प्राप्त करने के लिए जरूरत है.

आप कह रहे हैं कि आपकी जीत आसान है. 140-150 सीटें मिलेंगी. लेकिन क्या कारण है कि नीतीश की लोकप्रियता का ग्राफ काफी आगे दिख रहा है. आपकी नजर में ऐसा महत्वपूर्ण कारण क्या है कि लोग बीजेपी को वोट करेंगे और नीतीश को नहीं?

मैं मानता हूं कि एक कंधे पर लालू का अपराध और जंगलराज और दूसरे कंधे पर कांग्रेस का 12 लाख करोड़ रु. का भ्रष्टाचार लेकर जो विकास की बात करता है तो वह बहुत खोखली नजर आएगी. बिहार में आज यही जनता महसूस कर रही है. स्वाभाविक रूप से बीजेपी के बारे में उसका अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान, गोवा, महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड में जीते. एक साल पहले ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सूचकांक में झारखंड का स्थान 29वां था, बिहार 27वें नंबर पर था लेकिन एक साल में ही झारखंड तीसरे नंबर पर आ गया, और बिहार वहीं है. बीजेपी का यह ट्रैक रिकॉर्ड है.

मुख्यमंत्री के उम्मीदवार को लेकर ऊहापोह है, गिरिराज सिंह ने बयान दिया कि कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं होगा.
कोई ऊहापोह नहीं है. बीजेपी का मुख्यमंत्री बनने जा रहा है और उसका चयन एनडीए का विधायक दल और बीजेपी संसदीय बोर्ड करेगा.

लेकिन क्या सीएम कोई भी हो सकता है, पिछड़ा या सवर्ण जैसी कोई बात नहीं है?
मैंने कहा कि अभी कोई बात तय नहीं है.

नीतीश कुमार ने कहा था कि अपराध के मामले में बिहार से आगे बीजेपी शासित मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य हैं, तो जंगलराज की बात नहीं हो सकती.
मुकदमे रजिस्टर्ड होंगे तभी तो आंकड़े आएंगे. वहां अपराध दर्ज ही नहीं होने दिया जाता है.

आप लोग 25 साल के नीतीश-लालू राज पर हमला कर रहे हैं, लेकिन उसमें बीजेपी भी सात साल नीतीश के साथ रही है.
कोई भी सरकार हो, उसकी ज्यादातर बातें सरकार के मुखिया पर निर्भर करती हैं. फिर भी सात साल में काफी विकास हुआ था. बीजेपी जब तक रही तब तक ही विकास हुआ. आप बाद के दो साल के आंकड़े निकाल कर देख लीजिए विकास में लगभग 82 फीसदी की गिरावट है और अपराध की दर में 40 फीसदी की वृद्धि है.

नीतीश और लालू में से बीजेपी का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी कौन है?
मुझे लगता है…..सब साथ में ही है. उनको अलग-अलग देखना ठीक नहीं है. नीतीश जी को लालू से अलग करके नहीं देखना चाहिए.

बीजेपी हमेशा सवाल खड़े करती रही है अन्य राजनैतिक दलों पर कि मुफ्त में लैपटॉप आदि चीजें बांटती है, लेकिन पार्टी ने भी बिहार में स्कूटर, पेट्रोल, मकान आदि की बात की है, सोच में यह बदलाव क्यों?
प्रति व्यक्ति आय में बिहार आज नीचे से पहले-दूसरे पायदान पर है. हमारा विजन दस्तावेज बिहार के हर क्षेत्र और हर व्यक्ति के विकास को ध्यान में रखकर बनाया है. हर क्षेत्र के विकास में बिजली, पीने का शुद्ध पानी, सिंचाई, धान समर्थन मूल्य पर खरीद कराना, शिक्षा, बिजली की व्यवस्था को सुधारना, परीक्षा में नकल बंद करवाना, उद्योग धंधे लाना, रोजगार देना ये सारी चीजें भी विजन दस्तावेज में हैं. चूंकि प्रति व्यक्ति आय कम है तो लोगों को समान मंच देने के लिए व्यक्तिगत सहायता देना बिहार जैसे राज्य में बहुत जरूरी है. बिहार गुजरात नहीं है. इसलिए बीजेपी ने पूरे बिहार के क्षेत्र का विकास और उस विकास को और नीचे ले जाकर सर्व समावेशक बनाने वाला एक व्यापक विजन दस्तावेज बनाने का प्रयास किया है. उसको चुनावी वादों के साथ नहीं जोडऩा चाहिए.

बिहार में हाइटेक वार रूम बनाया है और आप दिल्ली में बैठकर भी सीधी निगरानी कर रहे हैं, जबकि बिहार में आपने कहा कि 85 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र है. उसको आप कैसे मैनेज करते हैं?

देखिए, इसके लिए हमने टेक्नोलाजी का सहारा लिया है. हमारे तीन प्रकार के अभियान चले हैः एक, हर बूथ के गठन के लिए 243 विधानसभा में पूर्णकालिक पिछले एक साल से काम कर रहे हैं; दूसरा, प्रचार का है, जिसमें हमने हर बूथ पर पांच-पांच वाल पेंटिंग किए हैं. तीन पोस्टर लगाए हैं. हजारों गाडिय़ों पर स्टिकर आदि लगाने का काम हुआ है. इसकी पूरी मॉनिटरिंग मोबाइल से ऐप के जरिए बिहार के वार रूम से होती है और मुझ तक भी रात के 12 बजे से पहले पहुंच जाता है; तीसरा, 243 विधानसभा क्षेत्रों में हमने 245 आधुनिक रथ घुमाने का काम किया है. इस बार हमने प्रचार में सबसे ज्यादा मतदाताओं से संपर्क की रणनीति अपनाई है. 40 दिन के अभियान में हम सीधे एक करोड़ मतदाताओं तक पहुंच रहे हैं. पूरी मॉनिटरिंग बिहार में हमारे वार रूम से हो रही है. मैं विशेष रूप से कहना चाहूंगा कि हमारे वहां के प्रभारी भूपेंद्र यादव और चुनाव प्रभारी अनंत कुमार ने बहुत परिश्रम किया है. बिहार की पूरी टीम ने प्रदेश से लेकर बूथ तक एकजुट होकर इसे सफल करने में लगी है तब जाकर बहुत अच्छा माहौल बीजेपी के पक्ष में दिखाई दे रहा है.

इस चुनाव में आरएसएस की कितनी भूमिका है?
हर चुनाव में होनी चाहिए, उतनी है.

बीजेपी ने विपक्ष में रहते हुए आधार कार्ड की आलोचना की थी, यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति ने इसका बिल खारिज कर दिया था, स्मृति ईरानी ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ और अनंत कुमार ने सीबीआइ जांच और इसे शुरू करने वालों पर आपराधिक मुकदमे की बात की थी. अब रुख में बदलाव क्यों?
अनंत कुमार का बयान मुझे मालूम नहीं है. लेकिन जब यह शुरू हुआ तो मैं गुजरात का गृह मंत्री था. मैंने ही देश के प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था कि आधार कार्ड के आधार पर नागरिकता देने का प्रावधान ठीक नहीं है और अब वह प्रावधान इसमें नहीं है. हमारा रुख राष्ट्रीय सुरक्षा तक ही सीमित था.

मुद्रा योजना को लेकर बैंकों पर काफी दबाव और गारंटी और जरूरी दस्तावेज के बिना लोन की बात से एनपीए काफी बढऩे की आशंका जताई जा रही है.

यह लोन मेला नहीं है. मैं खुद एशिया की सबसे बड़ी कोऑपरेटिव बैंक का चेयरमैन रहा हूं. यह योजना मेरे यहां भी शुरू हुई थी. कभी छोटा लोन लेने वाला एनपीए नहीं होता. किसी बैंकर से आप पूछकर देखिए. सबसे कम एनपीए छोटा लोन लेने वाले का होता है.

काले धन के मुद्दे पर बीजेपी काफी असमंजस में रही. पहले चुनाव में बयान दिया गया, अब जब सरकार ने काले धन की विंडो ओपन की तो पूरी तरह फ्लॉप रही. आपको लगता है कि इस मुद्दे पर सही तैयारी नहीं हुई?
हमारी सरकार बनने के बाद पहली कैबिनेट का पहला प्रस्ताव काले धन पर एसआइटी का पास किया. एसआइटी एक सप्ताह में बनी और सारी सूचनाएं एसआइटी को मुहैया करा दी गईं. दुनिया भर में जहां-जहां पीएम और वित्त मंत्री गए, काले धन पर दुनिया भर में एक साझा मन बनाने में अहम भूमिका निभाई. इसके लिए कानूनों में परिवर्तन जरूरी था, सरकार ने वह भी किया. उसके बाद में हम एक कानून लेकर आए. जिसमें संविधान बनने के बाद भारत में पहली बार वित्तीय अनियमितताओं के लिए सजा का प्रावधान किया. कठोर से कठोर कानून लेकर बीजेपी की सरकार आई. लेकिन कानून पूर्व से ही लागू हो यानी पांच साल पहले भी काला धन था तो उसको सजा हो. लेकिन न्याय का सिद्धांत कहता है कि उनको वापस लाने के लिए एक रास्ता दिखाया जाए. यानी एक मौका सरकार ने दिया कि जो गलती हुई सो हुई, लेकिन अब आ जाओ. अब अगर कम आए हैं तो कानून आगे अपना काम करेगा.

अरुण जेटली ने कहा कि विदेश में काला धन है ही नहीं, ज्यादातर काला धन भारत में ही है, पहले बहस थी कि भारत का बड़ा बजट टैक्स हेवेन में है.
नहीं, जेटली जी ने ऐसा नहीं कहा, मैंने उनके भाषण को पढ़ा है और खुद उनसे बात भी की है. उन्होंने यह कहा है कि विदेश से ज्यादा संभवतः काला धन भारत में है. देश के बाहर जो काला धन जाता है वह हवाला के जरिए जाता है और देश में जो काला धन है वह टैक्स चोरी का है. दोनों काले धन में बड़ा अंतर है.

आपने पहली बार ओबीसी मोर्चा बनाया है, क्या यह भी अन्य मोर्चे की तरह होगा या आपकी कुछ अलग सोच है?
कोई अलग सोच नहीं है. जैसे युवा, महिला, अल्पसंख्यक मोर्चा है, उसी तरह ओबीसी मोर्चा भी है. स्वाभाविक तौर से ओबीसी जाति के संगठन के लिए काम करेगा.

संगठन का मौजूदा ढांचा देखें तो बहुत कुछ एक व्यक्ति पर केंद्रित हो जाता है, इसलिए विकेंद्रीकरण की बात होती रहती है.
11 करोड़ सदस्य कोई एक व्यन्न्ति नहीं बना सकता. रिकॉर्ड सदस्यता अभियान में मेरे 40 लाख सदस्यों ने भाग लिया है. क्या यह आंकड़ा कम है?

बिहार चुनाव को आप अपने लिए कितनी बड़ी चुनौती के रूप में देखते हैं क्योंकि राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होने वाला है, अगर आपको दूसरा टर्म मिलता है तो क्या बदलाव करना चाहेंगे?
कैसी चुनौती? राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव किसी अन्य पार्टी के लिए एक घटना हो सकती है. हमारे यहां तो हर दो साल में होता है. एक ही पार्टी ऐसी है कि जहां संगठनात्मक चुनाव समय पर होते हैं. खास योजना की बात नहीं है, पार्टी एक निरंतर प्रक्रिया है, वह चलती रहती है.

गुजरात का जो पाटीदार आंदोलन है उस पर आपकी अपनी राजनैतिक सोच क्या है? यह आंदोलन कितना बढ़ेगा क्योंकि पिछड़ों में इसका जुड़ाव बढ़ रहा है.
मेरी कोई व्यन्न्तिगत सोच या नीति नहीं हो सकती. जो पार्टी की होती है वही मेरी भी है. मैं मानता हूं कि गुजरात इकाई इसको सही से संभाल रही है. एक घटना हुई है गुजरात इकाई जिसे ठीक से देख रही है.