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लालकृष्ण आडवाणी, कैसे चूक गये, दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने से ?

नयी दिल्ली,  भारतीय राजनीति में पिछले करीब छह दशक से अपने प्रबुद्ध व्यक्तित्व, प्रखर बयानों, सूझबूझ भरे संगठन कौशल पर चढ़कर चुनावी सियासत की हवाएं पलट देने वाले और लंबे समय तक देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल के पर्याय रहे लालकृष्ण आडवाणी हमेशा अपने दूरंदेशी फ़ैसलों के लिए पहचाने जाते रहे हैं। लेकिन जब अपने बारे में महत्वपूर्ण फ़ैसला करने के मौक़े आए तो क्या वह दीवार पर लिखी इबारत को भी पढ़ने से चूक गए ?

ऐसा केवल गुजरात के गाँधीनगर लोकसभा क्षेत्र से इस बार उन्हें टिकट न दिए जाने के मामले में ही नहीं हुआ है। इसके पहले चाहे 2005 में उनकी चर्चित पाकिस्तान यात्रा हो या फिर 2013-14 में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के चयन का मामला हो, उनके निर्णय उन्हें धोखा दे चुके हैं। आडवाणी के राजनीतिक जीवन पर यदि नजर डालें तो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के 2004 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद भारतीय राजनीति में यह लगभग तय हो गया था कि अब इस भगवा पार्टी की कमान आडवाणी ही संभालेंगे और यदि आगे कभी सरकार बनी तो उसकी अगुवाई भी वही करेंगे। किंतु राजनीति में जहां एक कदम आपको शिखर पर ले जाता है वहीं एक छोटे से रुख के कारण नेता अर्श से फर्श पर आ जाता है।

आडवाणी के राजनीतिक जीवन की ढलान 2005 में पाकिस्तान यात्रा के दौरान शुरू हो गयी थी। इस यात्रा का एक छिपा मकसद आडवाणी की स्वीकार्यता के फलक को मजबूती देना था क्योंकि रथयात्राओं और रामजन्म भूमि आंदोलन के कारण उनकी छवि एक हिन्दूवादी नेता की बन चुकी थी। पाकिस्तान यात्रा के दौरान आडवाणी ने न केवल मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी बल्कि उन्हें एक ‘‘धर्मनिरपेक्ष नेता’’ भी बताया। पाकिस्तान को लेकर आरएसएस और भाजपा के बिल्कुल अलग विचारों के कारण आडवाणी के इस बयान से राजनीतिक तूफान खड़ा हो गया और इसी के चलते पाकिस्तान से लौटने के फौरन बाद आडवाणी ने भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

तमाम राजनीतिक खींचतान के बावजूद भाजपा ने आडवाणी को अपना चेहरा बनाते हुए 2009 का चुनाव लड़ा। किंतु भाजपा सरकार बनाने में विफल रही और इसी के साथ आडवाणी की संभावनाओं का दायरा भी सिकुड़ गया। पार्टी में आडवाणी का सम्मान बरकरार रहने के बावजूद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें चुनौती दे सकने वाले नेता के रूप में धीमे धीमे उभरने लगे। भाजपा ने 2014 के आम चुनाव से पहले मोदी को पार्टी की अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया तो आडवाणी ने परोक्ष असहमति जतायी। फिर जब पार्टी ने मोदी को प्रधानमंत्री चुना तो आडवाणी ने चुप्पी साध ली। मोदी सरकार में 75 वर्ष की आयु का एक अलिखित नियम बनाकर आडवाणी सहित कई उम्रदराज नेताओं को कोई मंत्री पद नहीं दिया गया। बाद में पार्टी ने उनको मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया जिसे लेकर विपक्ष आज तक भाजपा पर तीखे तंज कसता है।

आडवाणी ने प्रधानमंत्री पद के लिए उन्हें नहीं चुने जाने, सरकार में कोई पद नहीं मिलने और उन्हें मार्गदर्शक मंडल में डाले जाने को लेकर आज तक आरएसएस या भाजपा के विरूद्ध एक भी शब्द नहीं कहा। अब जबकि पार्टी ने आडवाणी की पारंपरिक गांधीनगर सीट से उन्हें टिकट न देकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को उतारा है तो माना जा रहा है कि आडवाणी इस निर्णय पर भी मौन ही रहेंगे क्योंकि वह संघ और पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ता हैं। आडवाणी को भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी के बाद सबसे कद्दावर नेता माना जाता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। 1984 के आम चुनाव में भाजपा महज दो सीटों पर सिमट गयी थी। उसके बाद इस पार्टी ने धीरे धीरे भारतीय राजनीति में जिस प्रकार अपने पैर मजबूती से जमाये और पहले विपक्ष की मजबूत आवाज के रूप में और फिर सत्ता में पहुंचने पर अपनी खास छाप छोड़ी, उसमें आडवाणी के व्यक्तित्व और उनकी रथयात्राओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय राजनीति में आडवाणी को ‘‘प्रथम रथयात्री’’ का तमगा भी दिया जाता है।

अविभाजित भारत में आठ नवंबर 1927 को कराची एक व्यावसायिक सिंधी परिवार में जन्मे आडवाणी की शुरूआती शिक्षा कराची, हैदराबाद (पाकिस्तान स्थित) में हुई। देश विभाजन के बाद उनका परिवार भारत आ गया और आडवाणी ने बंबई विश्वविद्यालय के सरकारी लॉ कालेज से कानून की पढ़ाई की। सार्वजनिक जीवन की शुरुआत आडवाणी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवी के रूप में कराची से ही कर दी थी। बाद में उन्होंने अलवर सहित राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में आरएसएस के कार्यकर्ता के रूप में काम किया। बाद में वह श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा शुरू की गयी पार्टी भारतीय जनसंघ से जुड़े और आगे जा कर इसके अध्यक्ष भी बने। इस दौरान उन्हें आरएसएस के विचारक पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के साथ काम करने का अवसर मिला। उपाध्याय की कार्यशैली और विचारों ने आडवाणी के मानस पर गहरी छाप छोड़ी।
आपातकाल दौरान उन्हें जेल में रखा गया। आपातकाल के बाद बनी मोरारजी देसाई सरकार में आडवाणी को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया गया था। सूचना प्रसारण मंत्री के रूप में आडवाणी का एक वाक्य आपातकाल के दौरान अधिकांश भारतीय मीडिया की तस्वीर बयां करता है और आज भी इसे दोहराया जाता है…‘‘आपसे केवल झुकने को कहा गया था, आप तो रेंगने लगे।’’

भारतीय राजनीति में 1990 का दशक तेजी से बदलने वाले घटनाक्रमों के रूप में याद रखा जाता है। केन्द्र द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने की सिफारिशें करने वाली मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद कांग्रेस एवं भाजपा से इतर क्षेत्रीय दलों का महत्व एकाएक प्रबल हो गया। किंतु द्विदलीय राजनीति के समर्थक आडवाणी ने अपनी रथयात्रा निकाल कर न केवल राममंदिर आंदोलन को धार दी बल्कि भाजपा को भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा विपक्षी दल बनाने की आधारशिला भी रख दी। छह दिसंबर 1992 में जब अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वस्त किया गया तो आडवाणी भाजपा के प्रमुख नेताओं के साथ अयोध्या में मौजूद थे। इसे लेकर उन पर मुकदमा भी चलाया गया।

आडवाणी ने भाजपा के अध्यक्ष, लोकसभा एवं राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष तथा वाजपेयी सरकार में गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री रहते हुए, एक कुशल प्रशासक एवं सक्रिय सांसद की भूमिका निभायी। उन्होंने लोकसभा सांसद के रूप में नयी दिल्ली और गांधीनगर लोकसभा सीटों का समय समय पर प्रतिनिधित्व किया। नयी दिल्ली लोकसभा सीट पर उन्होंने अपने समय के सुपर स्टार राजेश खन्ना को परास्त किया था।
वाजपेयी के साथ आडवाणी की जोड़ी काफी लोकप्रिय रही है। आडवाणी ने कई बार सार्वजनिक मंचों पर यह स्वीकार किया है कि उन्हें भाषण देना वाजपेयी ने ही सिखाया। यही नहीं, वाजपेयी उस दौर में कई बार आडवाणी के साथ उनकी मोटरसाइकिल पर बैठकर पिक्चर देखने भी जाते थे। वाजपेयी की तरह आडवाणी का संबंध भी कुछ समय पत्रकारिता से रहा। उन्होंने ‘‘माई कंट्री माई लाइफ’’ शीर्षक से अपनी आत्मकथा लिखी है। उनके द्वारा लिखी गयी अन्य पुस्तकों में ‘‘अ प्रिजनर्स स्क्रेप बुक’’ एवं ‘‘एज आई सी इट’’ भी लिखी।