लालू प्रसाद : सांप्रदायिक सौहार्द का बेमिसाल पहरुआ
June 12, 2018
नई दिल्ली, राजद अध्यक्ष और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के 71वें जन्मदिन पर जेएनयू, नई दिल्ली के शोधार्थी छात्र जयन्त जिज्ञासु ने लालू यादव पर अपने विस्तृत लेख का दूसरा और अंतिम भाग जारी किया है। लेख का विषय-लालू प्रसाद: सांप्रदायिक सौहार्द का बेमिसाल पहरुआ है, जिसे लालू पेरसाद यादव के अफिशियल फेसबुक एकाउंट से शेयर किया गया है।
बेहतर सेहत की असीम सद्कामनाओं के साथ लालू जी पर मेरे विस्तृत लेख का दूसरा और अंतिम भाग:
…जहां तक पलायन और ब्रेनड्रेन की बात है तो वो आज़ादी से पहले से ही होता रहा है। राजेंद्र प्रसाद जीरादेई (छपरा) में पैदा हुए, तो वो छपरा में ही क्यूं न पढ़े, अविभाजित बंगाल के प्रेसीडेंसी कॉलिज की शोभा बढ़ाने कलकत्ता जाने की क्या ज़रूरत थी? मां की ममता में ही पलते, घर का खाना भी मिलता, आम-महुआ के बगीचे में जाके बचपन, लड़कपन और यौवन को भी जी भरकर जी पाते! इसलिए, लालू से विद्वेष का कोई जवाब नहीं हो सकता।
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जो रेल डूबता जहाज बता दिया गया था, उसे रेल मंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद ने यात्री भाड़ा घटाकर रिकॉर्ड मुनाफ़ा दिया, हार्वर्ड से लोग उनसे प्रबंधन का गुर सीखने आए। आज तो अलग से पेश होने वाले गौरवशाली भारतीय रेल बजट को आम बजट के साथ मिला कर उसका वुजूद ही मिटा दिया इस सरकार ने।
देश की तेज़ी से बदलती राजनीति व एजेंडासेटिंग पर बड़ी पैनी नज़र रखने वाले और ताऊ देवीलाल (उन्हीं की बदौलत लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने की राह आसान हुई थी, और इसीलिए मैं अक्सर कहता हूँ कि बिहार हरयाणा का अहसानमंद है) के सूबे से ताल्लुक रखने वाले संजय यादव बारीकी से बेयर फ़ैक्ट्स परोस रहे हैं, “1990 में लालू जी ने जब बिहार सम्भाला था तब बिहार राज्य पर 900 करोड़ का क़र्ज़ा था। पटना का ऐतिहासिक गांधी मैदान और पटना जंक्शन गिरवी रखा हुआ था। लेकिन 2005 में जब लालू जी ने नीतीश को बिहार सौंपा था तब राज्य के ख़ज़ाने में 2700 करोड़ surplus थे। यही तो जंगलराज था। ख़ैर..
लालू जी केंद्र में रेल मंत्री थे। ग्रामीण विकास मंत्रालय राजद के पास था। मनरेगा योजना रघुवंश प्रसाद सिंह और लालू जी के दिमाग़ की शुरुआती उपज थी। पूरे देश की ग्रामीण सड़कों का निर्माण मनरेगा के तहत लालू जी की ही दूरदृष्टि का परिणाम था। बिहार में लालू जी ने यूपीए से दिल खोलकर पैसा दिलवाया। लालू जी 2004 में रेल मंत्री बने। बिहार में श्रीमती राबड़ी देवी जी मुख्यमंत्री थी। उन्होंने UPA सरकार के ख़ज़ाने का मुँह बिहार के लिए खुलवाया दिया।
विकास योजनाओं के केंद्रीय कैबिनेट से स्वीकृत होने और बजट आवंटन होने में 8-10 महीने लगते है। इन सब स्वीकृत योजनाओं का बजट बिहार को मिलना शुरू ही हुआ था कि बिहार में विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र आचार संहिता लागू हो गई। दुर्भाग्यवश राजद की हार हुई और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गए। पूर्व स्वीकृत योजनाओं पर आचार संहिता समाप्त होते ही कार्य शुरू हो गया। और विकास पुरुष बन गए नीतीश कुमार।
लालू जी ने नीतीश कुमार की सरकार आने पर भी UPA से बिहार को पैसे की कमी नहीं होने दी। लालू जी की बिहार में सरकार थी तब 6 साल NDA की केंद्र सरकार ने बिहार को फूटी कौड़ी नहीं दी थी। नीतीश कुमार और रामबिलास पासवान सरीखे नेताओं ने राज्य सरकार की वाजपेयी सरकार से मदद करवाना तो दूर राज्य को मिलने वाली योजनाओं और बजट में भारी कटौती और देरी करवाई। लेकिन लालू जी ने दुर्भावना से कभी कार्य नहीं किया।
तभी तो लालू जी बिहार की 85 फ़ीसदी लोगों के दिल में बसते है। बाक़ी सब मीडिया निर्मित छूशासन है ही…” आजकल प्रश्नोत्तरी भी कम नहीं चल रही है। मुझ जैसे अदना व्यक्ति से भी राष्ट्रहित के बड़े-बड़े सवाल दागे जा रहे हैं। संवाद की तहज़ीब तो ज़िंदा रहनी ही चाहिए। एक बानगी:
बड़े मियां का सवाल: राबड़ी देवी को दहेज में जो चार बाछी मिली थी उससे बढकर 40 गायें हो गयी जिसके दूध बेचने से इतनी संपति अर्जित हुई है. लालू को बताना चाहिए कि उनके बेटों के पास 20 लाख की मोटरसाइकिल और 40 लाख से ज्यादा की बीएमडब्ल्यू गाडी कहां से आई. बिहार के कितने युवा हैं जो 20 लाख की मोटरसाइकिल और 40 लाख की बीएमडब्ल्यू गाडी की सवारी करते हैं. क्या यह घोटाले का पैसा नहीं है?
ख़ाकसार का जवाब: वाजिब सवाल। बस ऐसे ही अमित शाह और उनके सुपुत्र से भी पूछा जाना चाहिए। उस वक़्त आपकी जिज्ञासा पलायन क्यों कर जाती है? अंबानी द्वारा फाइल गायब कराने को लेकर क़ुबूलनामे के बावजूद आपकी घिग्घी क्यूं बंधने लगती है? आज कल 38500 रुपये की एक गीता माननीय खट्टर साहब की सरकार खरीद रही है मानो अब उससे सस्ती गीता पर हाथ रखकर शपथ लेना स्वीकार्य नहीं होगा। फिर भी, रणबांकुड़ों द्वारा चयनित प्रश्नाकुलता की बहादुरी!
और, न्यायालय के प्रति अदब के साथ कहना है कि जज को फ़ोन करके अपनी भावनाएं प्रकट करने वाले ये भारतमाता के सच्चे सपूत व प्रबुद्ध नागरिक कौन हैं? ऐसा मालूम पड़ता है कि लालू ने देश को लूट के कंगाल कर दिया हो। संदेश ऐसे दिया जा रहा है जैसे जज का नंबर राष्ट्र की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन चुके लालू के ‘लंपटों’ के पास है और वो जज को आए दिन फोन करके तंग करते रहते हैं। जब लालू समर्थकों के पास जज का नंबर है तो इस डिजिटल इंडिया के नमूने क्या बैठ के झाल बजा रहे हैं? नंबर ऊपर करने के मामले में ट्रॉलर्स क्या इतने काहिल-निकम्मे हो गए हैं! घुमाओ फोन जज को और बोलो कि अगले मामले में लालू जैसे ‘गंवार-बकलोल’ की फसरी खींच लेने का फैसला सुनाएं। फिर जाके आरती उतारी जाए उस कलम की। उस एक निर्णय से देश की अखंडता, एकता और संप्रभुता बचा ली जाएगी। विश्वगुरू बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा लालू है! जब तक इ आदमी ज़िंदा रहेगा, मोदी जी दुनिया के सिरमौर इस प्राचीन राष्ट्र का गौरव वापस नहीं ला पाएंगे! मतलब फ़साना बनाने भी एक हद होती है! कहाँ से लाते हैं इतनी क्रिएटिविटी!
लालू को चाहने वाले दुनिया भर में हैं। एक ऐसा नाज़ुक वक़्त जबकि इस देश के अक्लियत भाइयों-बहनों की इस मुल्क के साथ सेंस ऑफ बिलॉंगिंग पर चोट की जा रही थी, वैसे समय में आडवाणी को गिरफ़्तार कर अल्पसंख्यक तबके के इस देश की नागरिकता और मिट्टी से जुड़ाव में दरक रहे भरोसे को पुनर्स्थापित किया। यह इस देश के प्रोग्रेसिव और सेक्युलर लोग बख़ूबी समझते हैं। इसलिए, उनको लगता है कि इस मोड़ पर लालू को बचाना जम्हूरी अंगों को बचाने जैसा है।
एक दिलचस्प वाक़या साझा कर रहा हूँ। 185 देशों की भागीदारी वाले 19वें विश्व युवा-छात्रोत्सव में शिरकत कर 18 दिनों के रूसी प्रवास से पिछले बरस अक्टूबर में लौटा। मुख़्तलिफ़ तहज़ीब के लोगों से विचार साझा करना दिलचस्प तज़ुर्बा रहा। वहाँ एक रोज़ पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आए प्रतिनिधियों के साथ लंच कर रहा था। मुझे बिहारी जानकर ख़ुश होते हुए उन्होंने पूछा – “और, लालूजी का क्या हाल है? सुना है, आपके यहाँ की सरकार उन्हें आजकल बड़ा तंग कर रही है”। यह मक़बूलियत बहुत कम हिन्दुस्तानी नेताओं को मयस्सर हुई है जो दोनों मुल्कों में समान रूप से आम-अवाम में मशहूर हों, और लोग उनकी फ़िक्र करते हों।
मैंने उनसे कहा कि आप लालू जी की खैरियत पूछ रहे हैं, उनकी सलामती की दुआ करते हैं, पर आपको मालूम है कि लालूजी ने आपके सिंध में पैदा हुए एक नेता को समस्तीपुर में गिरफ़्तार किया था? वो ठहाके लगाते हुए बोले, “अडवाणी को”? मैंने कहा, “जी। एक सिंधी होने के नाते आपको बुरा नहीं लगा”? वो बोले, “सच पूछिए, तो इसीलिए हमलोग लालूजी की इज़्ज़त करते हैं कि आडवाणी आग लगाने का काम करते हैं और लालू यादव आग बुझाने का काम करते हैं। अडवाणी जैसे लोग सिंध में पैदा हुए हों कि पेशावर में जनम लिए होते; ऐसे लोग किसी के नहीं होते, इंसानियत के दुश्मन हैं ऐसे नफ़रतगर्द”।
इसके पीछे लालू जी की जीवन भर की कमाई हुई जो पूंजी है, वो है बिना डगमगाए सेक्युलरिज़म की हिफ़ाज़त के लिए चट्टान की तरह अचल-अडिग रहना। एक बिहारी और उससे बढ़कर भारतीय होने के नाते अपने पड़ोसी देश के बाशिंदे की ज़ुबानी यह सुन कर और उनके दिल में धर्मनिरपेक्षता के अग्रिम पंक्ति के सशक्त प्रहरी के लिए इतना अदबो-एहतराम देखकर अच्छा लगा। सांप्रदायिक सद्भाव क़ायम रख विदेश में सर उठा कर हमें गर्व से बात रखने का अवसर देने के लिए लालू जी का रूस के ओलंपिक सिटी सोच्चि में मैं मन ही मन शुक्रिया अदा कर रहा था।
और, यहीं लगता है कि लालू भारतीय राजनीति और हिन्दुस्तानी समाज के तानेबाने को महफ़ूज़ रखने के लिए आज कितने अपरिहार्य हो गए हैं, जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति मन की बात के चौथे एपिसोड में हमारे प्रधानमंत्री के साथ गुफ़्तगू करते हैं, श्रोताओं के सवालों का जवाब देते हैं, और अगले ही दिन स्वदेश रवानगी के पहले हमें नसीहत देकर चले जाते हैं कि विविधताओं-बहुलताओं को गाँधी और बुद्ध के देश में ज़िंदा रखा जाना चाहिए, मजहब के नाम पर रस्साकशी नहीं होनी चाहिए।
हर दौर में दो तरह के नेता हुए, एक लड़ने वाले , दूसरे सेटिंग-गेटिंग करने वाले। कर्पूरी-लालू-शरद पहली कैटेगरी के नेता हैं। इतिहास नीतीश सरीखे सेटिंगबाज़ों को याद नहीं रखता, और लड़ने व गाली सुनने वाले कभी बिसराए नहीं जाते। शरद-लालू में एक हज़ार ऐब हो सकते हैं, पर मंडल-संघर्ष में उनके योगदान को भला कौन भुला सकता है!
आज पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति को जिस तरह से कुप्रभावित किया जा रहा है, शोधकार्य के प्रति एक क़िस्म का उदासीन माहौल बनाया जा रहा है, समय पर फ़ेलोशिप नहीं दिया जा रहा है, छात्रों को तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर हतोत्साहित किया जा रहा है, वो एक सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा है। देश के विश्वविद्यालयों की जो हालत है, वहां शिक्षक-छात्र अनुपात संतुलित करने के नाम पर शिक्षकों की नियुक्ति नहीं कर जिस तरह बड़े पैमाने पर सीटें घटाई जा रही हैं, उस साज़िश को कोई अनपढ़ भी समझ सकता है।
2016 में जेएनयू में शोध के लिए जहां 970 सीटों पर दाखिले हुए, वहीं पिछले साल 2017 में मात्र 102 सीटें थीं। एम.फ़िल. और पी.एचडी. में SC से 2, ST से 2 और OBC से 13 छात्रों का एडमिशन हुआ। जबकि 2016 में इनकी कुल संख्या तकरीबन 600 थी। जनरल कटेगरी में 370 के आसपास सीटों का नुक़सान हुआ है। बाक़ी केंद्रीय विश्वविद्यालयों की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। 7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने की थी। शरद यादव,रामविलास पासवान, अजीत सिंह, जार्ज फ़र्णांडिस, मधु दंडवते, सुबोधकांत सहाय, आदि की सदन के अंदर धारदार बहसों व सड़क पर लालू प्रसाद जैसे नेताओं के संघर्षों की परिणति वीपी सिंह द्वारा पिछड़ोत्थान के लिए ऐतिहासिक, साहसिक व अविस्मरणीय फ़ैसले के रूप में हुई।
392 पृष्ठ की मंडल कमीशन की रिपोर्ट देश को सामाजिक-आर्थिक विषमता से निबटने का एक तरह से मुकम्मल दर्शन देती है जिसे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद बी.पी. मंडल ने अपने साथियों के साथ बड़ी लगन से तैयार किया था। 20 दिसंबर 1978 को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अनुच्छेद 340 के तहत नए पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा सदन में की। आयोग की विज्ञप्ति 1 जनवरी, 1979 को जारी की गई,जिसकी रिपोर्ट आयोग ने 31 दिसंबर 1980 को दी, राष्ट्रपति ने अनुमोदित किया। 30 अप्रैल 1982 में इसे सदन के पटल पर रखा गया, जो 10वर्ष तक फिर ठंडे बस्ते में रहा। वी.पी. सिंह की सरकार ने 7 अगस्त 1990 को सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा की। बाद में जब मामला कोर्ट में अटका, तो लालू प्रसाद ने जेठमलानी जैसे तेज़तर्रार वकील को अपने पक्ष की ओर से पकड़ा।
मंडल आंदोलन के समय पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा ने कहा था, “जिस तरह से देश की आजादी के पूर्व मुस्लिम लीग और जिन्ना ने साम्प्रदायिकता फैलाया, उसी तरह वी. पी सिंह ने जातिवाद फैलाया। दोनों समाज के लिए जानलेवा है।” तब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने गरजते हुए कहा था, “चाहे जमीन आसमान में लटक जाए, चाहे आसमान जमीन पर गिर जाए, मगर मंडल कमीशन लागू होकर रहेगा। इस पर कोई समझौता नहीं होगा। कपड़ा मंत्री शरद यादव, श्रम व रोज़गार मंत्री रामविलास पासवान, उद्योग मंत्री चौधरी अजीत सिंह, रेल मंत्री जार्ज फर्णांडिस, गृह राज्यमंत्री सुबोधकांत सहाय, सबने एक सुर से जातिवादियों और कमंडलधारियों को निशाने पर लिया।
रामविलास पासवान ने कहा, “वी पी सिंह ने इतिहास बदल दिया है। यह 90 % शोषितों और शेष 10 % लोगों के बीच की लड़ाई है। जगजीवन राम का ख़ुशामदी दौर बीत चुका है और रामविलास पासवान का उग्र प्रतिरोधी ज़माना सामने है”। अजीत सिंह ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा, “सिर्फ़ चंद अख़बार, कुछ राजनीतिक नेता और कुछ अंग्रेज़ीदा लोग मंडल कमीशन का विरोध कर रहे हैं जो कहते हैं कि मंडल मेरिट को फिनिश कर देगा। आपको मंडल की सिफ़ारिशों के लिए क़ुर्बानी तक के लिए तैयार रहना चाहिए”।
90 के दशक में पटना के गाँधी मैदान के रैला में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद जनसैलाब के बीच जोशोखरोश के साथ वी पी सिंह का अभिनंदन कर रहे थे :
राजा नहीं फ़कीर है
भारत की तक़दीर है।
इस ऐतिहासिक सद्भावना रैली में वी पी सिंह ने कालजयी भाषण दिया था, “हमने तो आरक्षण लागू कर दिया। अब, वंचित-शोषित तबका तदबीर से अपनी तक़दीर बदल डाले, या अपने भाग्य को कोसे।” उन्होंने कहा, “बीए और एमए के पीछे भागने की बजाय युवाओं को ग़रीबों के दु:ख-दर्द का अध्ययन करना चाहिए। लोकसभा और राज्यसभा की 40 फ़ीसदी सीटें ग़रीबों के लिए आरक्षित कर देनी चाहिए। विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के पास जमा गैस और खाद एजेंसियों को ग़रीबों के बीच बांट देना चाहिए।” आगे वो बेफ़िक्र होकर कहते हैं, “मैं जानता हूँ कि मुझे प्रधानमंत्री के पद से हटाया जा सकता है, मेरी सरकार गिरायी जा सकती है। वे मुझे दिल्ली से हटा सकते हैं, मगर ग़रीबों के दरवाजे पर से नहीं।”
पर कहना न होगा कि ओबीसी आरक्षण के लागू होने के लगभग ढाई दशक के बाद भी केंद्र सरकार का डेटा है कि आज भी केंद्र सरकार की नौकरियों में वही 12 फ़ीसदी के आसपास पिछड़े हैं, जो कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के पहले भी अमूमन इतनी ही संख्या में थे। आख़िर कौन शेष 15 % आरक्षित सीटों पर कुंडली मार कर इतने दिनों से बैठा हुआ है? और एससी-एसटी आरक्षण को तो और भी डायल्युट कर दिया जाता है मनमानी करके बावजूद इसके कि उसे संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। यही रवैया रहा तो लिख कर ले लीजिए कि इस मुल्क से क़यामत तक आरक्षण समाप्त नहीं हो सकता।
इधर, भारत सरकार ने एक विज्ञापन निकाला है कि ज्वाइंट सेक्रेटरी के 10 पदों पर बिना कोई परीक्षा लिए, बिना आरक्षण दिए सीधे बहाल करेगी। यह अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) का उल्लंघन है। यह वस्तुतः मूल हक़ का उल्लंघन है। साथ ही, अनुच्छेद 320 को भी धता बता दिया गया है। यह आरक्षण ख़त्म करने की दिशा में इस निर्लज्ज सरकार का पहला क़दम है। तब जब मंडल कमीशन की लड़ाई कोर्ट पहुंची तो लालू यादव ने सबसे आगे बढ़ कर इस लड़ाई को थामा व अंजाम तक पहुंचाया। वकील रामजेठमलानी को न्यायालय में मज़बूती से मंडल का पक्ष रखने के लिए वकील किया, और इस लड़ाई को जीता। आज जब बड़ी बारीकी, चतुराई व चालाकी से आरक्षण को डायल्युट किया जा रहा है, तो क्या आरक्षण बचाने के लिए लालू को फिर किसी रामजेठमलानी को वकील करना पड़ेगा या योद्धा सड़क पर उतरें!
सीबीआई-ईडी-इनकम टैक्स के मेरुदंडविहीन होनो के इस दौर में लालू के पास दो रास्ते थे, या तो बाक़ी ‘समाजवादियों-बहुजनवादियों’ की तरह ख़ामोशी ओढ़ लेते और वसीम बरेलवी के शेर को बरतते रहते:
उसी को हक़ है जीने का इस ज़माने में
इधर का लगता रहे, उधर का हो जाए।
या फिर संघं शरणं गच्छामि हो जाते, जैसा कि उनके प्रिय ‘छोटे भाई’ ने किया, जिन्हें जिताने और मुख्यमंत्री बनाने के लिए ओपन हार्ट सर्जरी के बावजूद वो एक दिन में 8-10 सभाएं करते रहे, नतीजे आने पर दही से तिलक करते रहे, ख़ुद परोस कर दही-चूरा-तिलकूट खिलाते रहे, प्रधानमंत्री लायक़ व्यक्ति बते रहे, और वही ‘छोटा भाई’ पीठ में छूरा भोंक दिया। नीतीश की यह चिरपरिचित अदा जनता को पसंद नहीं आई। सचमुच लालू इतने वर्षों की सियासी ज़िंदगी गुज़ारने का बावजूद कपटी औऱ धूर्त नहीं हो पाए। न उन्हें मीडिया को मैनेज करना आया न ब्युरोक्रेसी को कपार पर चढ़ाना आया। यह जानते हुए भी कि पिछले विधानसभा अध्यक्ष उदयनारायण चौधरी नीतीश के इशारे पर उनकी पार्टी को ही छिन्नभिन्न करने के लिए अपने पद की गरिमा को भी नीतीश के चरमों में रख दिया था; उसी नीतीश द्वारा विधानसबा अध्यक्ष की कुर्सी जदयू के लिए मांगे जाने के अनुरोध को वो ठुकरा नहीं पाए।
जब जुलाई में पलिटिकल मेलोड्रामा हुआ, तो नीतीश ने अपने लोगों को संबोधित करते हुए बाद में कहा, “जब महागठबंधन हुआ, तो लोग मुझे बोलते थे कि आपका अलग स्वभाव है, उनका जुदा मिजाज़, इ ग्रैंड अलायंस चलेगा? तो मैं बोलता था कि अरे दू-चार-दस महीना तो चलाइय्ये न देंगे!” अब यह मनोवृत्ति क्या दर्शाती है? मतलब शुरू से ही छल-कपट-धूर्तई नीतीश के मन में पल रहा था। जनादेश क्या नीतीश कुमार की ज़ाती जागीर थी जिसे घोषणापत्र के ठीक विरुद्ध विपक्षी खेमे में उन्होंने शिफ़्ट कर दिया। इतने सलीक़े से हिन्दुस्तान के 70 साल के सियासी इतिहास में शायद ही किसी ने किसी को ठगा हो।
पर, लालू ने इन दोनों रास्तों की ओर एक नज़र देखा भी नहीं। ऊन्होंने चुना तीसरा रास्ता, नफ़रतगर्दी की ज़बर्दस्त मुख़ालफ़त का रास्ता, फ़िरकापरस्ती के फन कुचलने का रास्ता, सांप्रदायिक सौहार्द- क़ौमी एकता का रास्ता, सामाजिक न्याय के लिए सतत-अनवरत-निरंतर चलने वाले संघर्ष का रास्ता, फुले-अंबेडकर-पेरियार का रास्ता, लोहिया-जयप्रकाश-कर्पूरी का रास्ता। इसलिए, यह वक़्त राजद के विधायकों-सांसदों-पार्षदों-पार्टी पदाधिकारियों एवं लालू के पुत्र-पुत्रियों के लिए बेदाग़ रहने का है, मज़बूत इदादे व बुलंद हौसले के साथ लोहा लेने का है। जनता उनके साथ खड़ी दिखाई देती है, चाहे जनादेश अपमान के ख़िलाफ़ हुई उनकी यात्रा के दौरान मिला अपार जनसमर्थन हो या सृजन घोटाले, शौचालय घोटाले, धान घोटाले, प्राक्कलन घोटाले आदि को उजागर करने और जनता के बीच ले जाते हुई उनकी बढ़ती सहज स्वीकार्यता हो।
वो ग़लतियाँ कतई न दुहराएं, जो अतीत में लालू जी से हुईं। फूंक-फूंक कर क़दम रखना होगा। चालें चली जा चुकी हैं। असली लड़ाई 2019 और 20 में होगी। चंद मीडिया घराना उकसाएगा, पर मीडिया से उलझने का नहीं है। अभी सारे अच्छे लोग समाप्त नहीं हो गए हैं या कि इस सत्ता के आगे घुटने नहीं टेक दिए हैं। कड़वे से कड़वा सवाल क्यों न हो, पत्रकारों के प्रश्नों से क़ायदे से ही गुज़रना है, और माकूल जवाब देना चाहिए। समर्थकों को नाज़ुक घड़ी में भी संभले रहने का संदेश देना होगा। जनभावनाओं व जनाक्रोश पर न तो लालू का अख़्तियार है, न राबड़ी का। बावजूद इसके जनता के उबलते गुस्से को भांपते हुए राबड़ी देवी ने बिहारवासियों, अपने समर्थकों, कार्यकर्ताओं व पार्टी सदस्यों से इस नाज़ुक घड़ी में शांति व सब्र बनाए रखने की अपील की। इसका स्वागत किया गया। तेजस्वी पूरे धैर्य व नैसर्गिक गरिमा के साथ जनता के मैदान में बने रहें, डटे रहें, जूझते रहें। जनता की अदालत कभी ग़लत फ़ैसले नहीं देती, न्याय वहीं से मिलेगा। याद रखिए, लड़ने वाले को ही ज़माना याद रखता है।
लालू प्रसाद के कामकाज की शैली के प्रति मेरी अपनी समीक्षा है, और आलोचना व असहमति लोकतंत्र की बुनियादी शर्त हैं। आशा है कि पूर्व में की गई कतिपय प्रशासनिक भूलें नहीं दुहराई जाएंगी, और नई रोशनी समतामूलक समाज की स्थापना हेतु कुछ क़दम और आगे बढ़ाएगी।