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आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट का अहम निर्णय, जनगणना मे OBC की गिनती पर उठा सवाल?

नयी दिल्ली,  सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि पदोन्नति में आरक्षण न तो मौलिक अधिकार है, न ही राज्‍य सरकारें इसे लागू करने के लिए बाध्‍य है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर कोई राज्‍य सरकार ऐसा करना चाहती है तो उसे सार्वजनिक सेवाओं में उस वर्ग के प्रतिनिधित्व की कमी के संबंध में डाटा इकट्ठा करना होगा, क्योंकि आरक्षण के खिलाफ मामला उठने पर ऐसे आंकड़े अदालत में रखने होंगे।

सुप्रीम कोर्ट से प्रतिनिधित्व की कमी के संबंध में डाटा इकट्ठा करने के निर्देश से होने वाली  जनगणना मे अन्य पिछड़े वर्ग की गणना को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो सकता है।

न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने अपने एक निर्णय में कहा है कि पदोन्नति में आरक्षण नागरिकों का मौलिक अधिकार नहीं है और इसके लिए राज्य सरकारों को बाध्य नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं, न्‍यायालय भी सरकार को इसके लिए बाध्य नहीं कर सकता।
शीर्ष अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्‍छेद 16(4) तथा (4ए) में जो प्रावधान हैं, उसके तहत राज्‍य सरकार अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) के अभ्‍यर्थियों को पदोन्‍नति में आरक्षण दे सकते हैं, लेकिन यह फैसला राज्‍य सरकारों का ही होगा।

अगर कोई राज्‍य सरकार ऐसा करना चाहती है तो उसे सार्वजनिक सेवाओं में उस वर्ग के प्रतिनिधित्व की कमी के संबंध में डाटा इकट्ठा करना होगा, क्योंकि आरक्षण के खिलाफ मामला उठने पर ऐसे आंकड़े अदालत में रखने होंगे, ताकि इसकी सही मंशा का पता चल सके, लेकिन सरकारों को इसके लिए बाध्‍य नहीं किया जा सकता।

पीठ का यह आदेश उत्‍तराखंड उच्च न्यायालय के 15 नवंबर 2019 के उस फैसले पर आया, जिसमें उसने राज्‍य सरकार को सेवा कानून, 1994 की धारा 3(7) के तहत एससी-एसटी कर्मचारियों को पदोन्‍नति में आरक्षण देने के लिए कहा था, जबकि उत्‍तराखंड सरकार ने आरक्षण नहीं देने का फैसला किया था।
यह मामला उत्‍तराखंड में लोक निर्माण विभाग में सहायक इंजीनियर (सिविल) के पदों पर पदोन्नति में एससी/एसटी के कर्मचारियों को आरक्षण देने के मामले में आया है, जिसमें सरकार ने आरक्षण नहीं देने का फैसला किया था, जबकि उच्च न्यायालय ने सरकार से इन कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने को कहा था। राज्य सरकार ने इस फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी।
उच्च न्यायालय ने कहा था कि सहायक अभियंता के पदों पर पदोन्नति के जरिये भविष्य में सभी रिक्त पद केवल एससी और एसटी के सदस्यों से भरे जाने चाहिए।
शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय के दोनों फैसलों को अनुचित करार देते हुए निरस्त कर दिया है।

जातियों पर डेटा एकत्र किया जाना भारत की पहले दशक की जनगणना के साथ ही शुरू हो गया था जिसे 1872 में ब्रिटिश राज के तहत पूरा किया गया था। इस जनगणना में, भारत भर में 3,208 जातियों की पहचान की गई। औपनिवेशिक सरकार ने 1931 की जनगणना तक जातियों से संबंधित जानकारी एकत्रित करना जारी रखा, लेकिन बाद की जनगणनाओं में इस अभ्यास का पालन नहीं किया गया।

भारत की स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर जाति सम्बंधित डेटा, 1951 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की पहली जनगणना से नियमित रूप से एकत्र किया जाता रहा है। इसलिए, हम जनसँख्या में उनकी हिस्सेदारी के सटीक प्रतिशत को जानते हैं – जैसा कि 2011 कि जनगणना के अनुसार यह प्रतिशत अनुसूचित जाति के लिए 16.6 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के लिए 8.6 प्रतिशत है। लेकिन सरकार ने शेष जनसँख्या के जाति के आंकड़ों को इकठ्ठा करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई है।