राजनीतिक विश्लेषकों व राजनीतिक पण्डितों के मुताबिक वोट बैंक की दृष्टि से प्रदेश में पिछड़ी जातियों का सबसे बड़ा वोट बैंक है। उत्तर प्रदेश में भाजपा, बसपा, सपा को अच्छी तरह पता है कि पिछड़ी जातियों की निर्णायक संख्या हैं और इन जातियों का झुकाव जिस दल की ओर होता है वह सबसे आगे निकल जाता है। सम्भवतः यहीं कारण है कि 55 प्रतिशत से अधिक यादव पिछड़ों में कुर्मी, लोधी, जाट, गूजर, सोनार, गोसाई, कलवार, अरक आदि की 22 व एवं मल्लाह, केवट, किसान, कुम्हार, गड़ेरिया, काछी, कोयरी, सैनी, राजभर, चैहान, नाई, भुर्जी, तेली आदि 33.34 प्रतिशत संख्या वाले इस वोट बैंक पर हर दल की नजर है।यदि विधानसभा चुनाव-2002, 2007 व 2012 के परिणाम को देखा जाय तो 2 से 3.5 प्रतिशत मतों के हेर फेर से सपा व बसपा की सरकारें बनती रहीं हैं। जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आयेगा, पिछड़ों को गोलबन्द करने के लिए राजनीतिक दलों में जुबानी जंग तेज होगी।
पिछड़ा-अतिपिछड़ा का कार्ड उत्तर प्रदेश में सर्वप्रथम 2001 में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने खेला था। उन्होंने सामाजिक न्याय समिति-2001 की सिफारिश के अनुसार जो छेदी लाल साथी आयोग-1974 पर आधारित थी, के अनुसार ओ.बी.सी. का तीन श्रेणियों में विभाजन कर क्रमशः 5 प्रतिशत, 8 प्रतिशत व 14 प्रतिशत तथा दलितों का दो वर्गो में विभाजन कर 10 व 11 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था के कदम उठाए. उस समय सपा, बसपा, दोनों दलों ने इस आरक्षण नीति का कड़ा विरोध किया, यही नहीं विरोध में मुलायम ने अपने सभी 67 विधायकों का सामूहिक इस्तीफा दिलवा दिया था। इसके बाद भी भाजपा को 2002 में राजनीतिक लाभ नहीं मिला, त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनने पर भाजपा के साथ मायावती ने साझा सरकार बनायी। भाजपा-2002 में राजनीतिक लाभ उठा सकती थी परन्तु उसने अतिपिछड़ों को सही ढंग से इसे समझा नहीं पायी। 2003 में सपा व भाजपा के मध्य तल्खी बढ़ने पर मुलायम सिंह यादव ने मौके का फायदा उठाते हुए बसपा, भाजपा में तोड़ फोड़ कर अपनी सरकार बनायी. 2004 में, मुलायम सिंह यादव ने 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का एक नया मुद्दा उछाल दिया।
बिहार विधानसभा चुनाव में धुर विरोधी रहे लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार ने दलित-पिछड़ों का मुद्दा जोरदार ढंग से उठाकर राजनीतिक पंडितों के सारे आकलन को झुठलाते हुए महागठबंधन को अप्रत्याशित जीत दिलाकर भाजपा को सदमे की स्थिति में पहुंचा दिया।बिहार में महागठबंधन के पक्ष में पिछड़े, अत्यन्त पिछड़े, दलित, महादलित, अल्पसंख्यक, बहुमत के साथ जुट गये। बिहार जैसा उत्तर प्रदेश में जातिगत व वर्गीय ध्रुवीकरण असम्भव है। जब तक माया व मुलायम एक साझा गठबंधन नहीं बनाएंगे, तब तक बिहार जैसा चमत्कार उप्र में सम्भव नहीं है।
यदि उत्तर प्रदेश में तीन कोणीय संघर्ष होता है तो पिछड़ी जातियों की अहम भूमिका रहेगी।उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने पिछड़ों को जो़डने की कोशिशें तेज कर दी है.मुलायम ने अतिपिछड़े वर्ग के सम्मेलन में यह कहकर कि-पिछड़ों की आबादी 54 प्रतिशत है, पर 7-8 प्रतिशत वाले ही शासन करते आ रहे है, यह कथन पिछड़ों को उग्र कर अपने पाले में करने की कोशिश का हिस्सा है। भाजपा को पता है कि जब-जब पिछड़ा भाजपा के साथ रहा भाजपा को सत्ता मिली। इसलिए भाजपा भी पिछड़ों को अपने पाले में करने के लिए गहन मंथन में जुटी है। भाजपा मे प्रदेश की कमान किसी पिछड़े को देने की सुगबुगाहट है। वहीं कांग्रेस भी पिछड़ी जातियों को गोलबन्द करने की कोशिश में है। इसीलिये, अब उत्तर प्रदेश की सत्ता हथियाने की कवायद में जुटी पार्टिया पिछड़ी जातियों को आरक्षण कोटा देने व सामाजिक न्याय का मुद्दा उछाल रही है।
पिछड़ों का आरक्षण मुद्दा जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आयेगा। अतिपिछड़ों को गोलबन्द करने के लिए राजनीतिक दलों में जुबानी जंग तेज होगी। सपा जहां 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के मुद्दो को तूल देती दिख रही है तो बसपा अतिपिछड़ों को काडर कैम्प के जरिये अपने पाले में करने की कोशिश में है।
एक दशक बाद उत्तर प्रदेश में फिर से 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के जिन बन्द बोतल से बाहर आ गया है। विधानसभा चुनाव -2017 को दृष्टिगत रखते हुए समाजवादी पार्टी ने 24 नवम्बर को पार्टी कार्यालय में 17 अतिपिछड़ी जातियों का सम्मेलन करा सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने इस मुद्दे को पुनः धार देकर अपने पाले में कर 2017 की चुनावी नैया पार करने का अभियान छेड़ दिया है। अतिपिछड़ी जातियों की उत्तर प्रदेश में निर्णायक स्थिति को देखते हुए सपा, बसपा, भाजपा, कांग्रेस सहित अन्य छोटे दलों की निगाहें अतिपिछड़े वोट बैंक पर लगी है। बिहार विधानसभा चुनाव में पिछड़ी, अतिपिछड़ी जातियों की मजबूत गोलबन्दी से इस वोट बैंक का और अधिक महत्व बढ़ गया है।