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हृदय को उचित पोषण मिलता है सदा हरित अर्जुन से

harit-arjunआम बोलचाल की भाषा में कहुआ और सादड़ो के नाम से जाने जाने वाले अर्जुन को धवल, ककुभ और नदीसर्ज आदि नामों से भी पुकारा जाता है। लगभग 60 से 80 फुट ऊंचाई वाले इस पेड़ को नदीसर्ज इसलिए कहते हैं क्योंकि यह प्रायः नदी−नालों के किनारे होता है। यह वृक्ष हिमालय की तराई, शुष्क पहाड़ी क्षेत्रों में नालों के किनारे, तथा मध्य प्रदेश, बिहार आदि राज्यों में पाया जाता है। इस सदाहरित वृक्ष की छाल ही प्रायः विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग की जाती है। एक बार इस पेड़ की छाल उतार लेने के बाद दुबारा छाल आने के लिए कम से कम दो वर्षा ऋतुओं का समय लगता है। एक वृक्ष में छाल तीन साल के चक्र में मिलती है। इसकी छाल बाहर से सफेद तथा भीतर से चिकनी, मोटी तथा हल्के गुलाबी रंग की होती है जिसकी मोटाई लगभग 5 मिलीमीटर होती है। इसका स्वाद कसैला तथा तीखा होता है। बसन्त ऋतु में इस वृक्ष में फल आते हैं जो सर्दियों में पकते हैं। यह फल ही इस वृक्ष का बीज होता है।

बीटा साइटोस्टेरॉल, अर्जुनिक अम्ल तथा फ्रींडलीन आदि अर्जुन की छाल में पाए जाने वाले प्रमुख घटक हैं। इसमें उपस्थित अर्जुनिक अम्ल ग्लूकोज के साथ एक ग्लूकोसाइड बनाता है जिसे अर्जुनिक कहा जाता है। इसके अतिरिक्त इसकी छाल का 20 से 25 प्रतिशत भाग टैनिन्स से बना होता है। इसके अतिरिक्त कैल्शियम कार्बोनेट, सोडियम, मैग्नीशियम तथा एल्युमीनियम भी इसमें पाए जाते हैं। चूंकि छाल में कैल्शियम−सोडियम प्रचुर मात्रा में होता है इसलिए यह हृदय की मांस पेशियों के लिए बहुत लाभकारी होता है। घी, दूध या गुड़ के साथ नियमित रूप से अर्जुन की छाल के चूर्ण का सेवन करने से हृदय रोग, जीर्ण ज्वर, रक्तपित्त आदि कभी नहीं होते। इसका सेवन मनुष्य को चिरजीवी भी बनाता है। हृदय रोगों में प्रयुक्त होने के कारण यह हृदय की मांसपेशियों के लिए एक टॉनिक का काम करता है। चिकित्सा की होम्योपैथिक पद्धति के अंतर्गत अर्जुन को हृदय को बल प्रदान करने वाला माना गया है। विभिन्न हृदय रोगों विशेष रूप से क्रिया विकार तथा यांत्रिक अनियमितता से उत्पन्न विकारों के उपचार के लिए इसके तीन एक्स व तीसवीं पोटेन्सी का प्रयोग किया जाता है।

अर्जुन से रक्तवाही नलिकाओं का संकुचन होता है। सूक्ष्म कोशिकाओं तथा छोटी धमनियों पर विशेष रूप से इसके प्रभाव से रक्त मिश्रण क्रिया बढ़ती है। इससे हृदय को उचित पोषण मिलता है। यह हृदय के विराम काल को बढ़ाकर उसे बल देता है। अर्जुन का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह शरीर में इकट्ठा नहीं होता अपितु मूत्र की मात्रा बढ़ाकर मूत्र के द्वारा बाहर निकल जाता है। इसी गुण के कारण यह उन रोगों में विशेष रूप से लाभकारी है जिसकी परिणति हार्ट फेल के रूप में होती है। ऐसा रोगी जिसकी हृदयपेशियां कमजोर हों या रक्त न मिलने के कारण मृतप्राय हों, धमनियों में रक्तदाब कम हो गया हो व हृदय फूला हुआ हो, उसे अर्जुन के सेवन से आश्चर्यजनक लाभ मिलता है। यह कोरोनरी धमनियों में रक्त प्रवाह बढ़ाकर हृदय को सामान्य बनाता है। आयुर्वेद के विद्वानों के अनुसार, पेट बढ़ने के रोग का कारण हृदय की दुर्बलता होती है तथा हृदय दुर्बल होता है मेदो वृद्धि से। अर्जुन इस दूषित चक्र को तोड़कर मेदो वृद्धि को रोक देता है और हृदय के रक्त स्रोतों को बल प्रदान करता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि अर्जुन से हृदय का स्पंदन ठीक व सबल होता है तथा उसकी प्रति मिनट गति भी कम हो जाती है। स्ट्रोक वॉल्यूम तथा कॉर्डियक आउटपुट बढ़ती है।

अर्जुन में रक्त स्तंभक तथा प्रति रक्त स्तंभक दोनों ही गुण होते हैं। अति रक्तस्राव की स्थित मिें रूक्षता के कारण कोशिकाओं को टूटने से बचाने के लिए यह स्तंभक की भूमिका अदा करता है परन्तु कोरोनरी धमनियों में यह धक्का नहीं जमने देता तथा बड़ी धमनी से प्रतिमिनट भेजे जाने वाले रक्त की मात्रा बढ़ाता है। हृदय में कमजोरी आने पर अर्जुन की छाल तथा गुड़ को दूध में मिलाकर औटाकर पिलाते हैं। हृदय शूल में अर्जुन की छाल को दूध में औटाकर देते हैं। सभी प्रकार के हृदय रोगों की अचूक औषधि है अर्जुन घृत। इसे बनाने के लिए आधा किलो अर्जुन की छाल को कूट पीस कर लगभग चार किलो पानी में पकाया जाता है। चौथाई जल बाकी बचने पर उसमें लगभग 50 ग्राम अर्जुन कल्क तथा 250 ग्राम गाय का घी मिलाकर पकाएं। यह रक्त पित्त भी दूर करता है। वासा की पत्तियों के रस में मिलाकर देने से यह टीबी की खांसी दूर करता है। अर्जुन कफ तथा पित्त प्रकोपों का शमन भी करता है। व्रणों में या बाह्य रक्तस्राव में इसके पत्तों का रस या त्वक चूर्ण का प्रयोग किया जाता है। पेशाब की जलन तथा चर्म रोगों में इसका चूर्ण विशेष रूप से लाभकारी होता है। हड्डी टूटने पर इसकी छाल का स्वरस दूध के साथ रोगी को देते हैं इससे सूजन व दर्द कम होते हैं तथा रोगी को जल्दी सामान्य होने में मदद मिलती है।

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