लखनऊ, चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को बजट पेश करने की मंजूरी तो दे दी लेकिन इसके साथ ही उसने उसके हाथ-पांव बांध दिए हैं और मुंह सिल दिए हैं। केंद्र सरकार अब एक फरवरी को ही आम बजट पेश तो करेगी लेकिन बकौल चुनाव आयोग चुनाव वाले पांच राज्यों में न तो वह किसी योजना की घोषणा करेगी और न ही इन राज्यों में अपनी उपलब्धियां गिनाएगी, क्योंकि ऐसा करना आदर्श चुनाव आचार संहिता की अवधारणा के विपरीत होगा।
चुनाव आयोग की इस हिदायत से विपक्ष की बांछें खिल गई हंै। केंद्र सरकार को चुनाव आयोग की हिदायतों पर अमल करना भी चाहिए लेकिन अगर ऐसा होता है तो क्या पांच चुनावी राज्य साल भर झुनझुना बजाएंगे। बसपा प्रमुख मायावती ने चुनाव आयोग के इस फैसले का स्वागत किया है और कहा है कि यह तो केंद्र सरकार को सोचना चाहिए था कि वह चुनाव के दौरान बजट पेश न करे। भाजपा के संदर्भ में एकबारगी चुनाव आयोग की यह हिदायत सही भी हो लेकिन उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा के मतदाताओं का क्या दोष है कि वे मतदान करने जा रहे हैं। वोट देने की इतनी बड़ी सजा चुनावी राज्यों को क्यों? एक साल में ये राज्य विकास की दौड़ में कितने पिछड़ जाएंगे, संभवतः इस विषय में कोई सोच नहीं रहा है। विरोधी दल इस बात के तर्क दे सकते हैं कि केंद्र सरकार चुनाव बाद भी तो आम बजट पेश कर सकती है। अगर वह जिद पर अड़ी है तो इन राज्यों के लिए बाद में अनुपूरक बजट पेश किया जा सकता है। बाद में उनके लिए नई योजनाओं की घोषणा की जा सकती है लेकिन इससे देश पर कितना भार पड़ेगा, यह सोचने-समझनेे की भी जरूरत महसूस नहीं की गई है। केंद्र सरकार को अगर बजट पर अतिरिक्त खर्च ही करना होता तो वह वह रेल बजट को आम बजट के साथ क्यों पेश करती? अभी तक तो बजट का दोहरा खर्च घटाने के बारे में किसी ने नहीं सोचा। कदाचित विपक्ष नहीं चाहता कि बजट खर्च में कमी आए। चुनाव आयोग भी जाने-अनजाने अनुपूरक बजट संभावित अतिरिक्त व्यय के लिए प्रभावी कारक की भूमिका में आ गया है। इसमें संदेह नहीं कि 13 दलों की रणनीति केंद्र सरकार को घेरने की थी और वे अपने इस मिशन में कामयाब हो गए हैं। विपक्ष ने राष्ट्रपति से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गुहार लगाई थी कि वह केंद्र सरकार को 01फरवरी को आम बजट न पेश करने दें क्योंकि इससे सत्तारूढ़ दल को चुनाव में लाभ हो सकता है। राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही के स्तर पर विपक्षी दलों को निराशा मिली क्योंकि बजट पेश करने का अधिकार केंद्र का है और वे उसके अधिकार के मामले में हस्तक्षेप उचित नहीं समझते थे। जो काम अदालत से नहीं हो सका, उसे चुनाव आयोग ने कर दिखाया है लेकिन इन प्रदेशों के विकास का क्या होगा, इसे लेकर विपक्ष न पहले गंभीर था और न आज है। उसे केद्र सरकार को काम नहीं करने देना है, अपने इस मंसूबे में वह सफल हो गया है। सवाल उठता है कि चुनावी राज्यों के लोग क्या नई योजनाओं से वंचित रहेंगे और अगर सरकार ने सदाशयता बस अनुपूरक बजट पेश किया भी तो इस पर आने वाले अतिरिक्त खर्च की जवाबदेही कौन लेगा। गौरतलब है कि पंजाब, यूपी, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा राज्यों में 4 फरवरी से 8 मार्च के बीच विधानसभा चुनाव होने हैं। वहीं केंद्र की भाजपा नीत सरकार 1 फरवरी को आम बजट पेश करने जा रही है। ऐसे में कांग्रेस की अगुआई में विपक्षी दलों ने आयोग से इस बाबत शिकायत की थी और बजट की तारीख आगे बढ़ाने की मांग की थी। इन दलों की दलील थी कि मतदान से पहले बजट भाषण से जनता पर सत्ताधारी दल असर डालने की कोशिश कर सकता है। वामपंथी, समाजवादी, जनता दल सहित 13 विपक्षी दल चाहते थे कि मोदी सरकार आम बजट 11 मार्च के बाद पेश करे। इस संबंध में कांग्रेस ने पिछली यूपीए सरकार द्वारा 2012 में बजट आगे बढ़ाने की दलील भी दी गई थी। आयोग ने कैबिनेट सचिव पीके सिन्हा से कहा है कि निष्पक्ष व स्वतंत्र चुनावों के लिए और सभी के लिए समान स्थिति बनाए रखते हुए आम बजट में ऐसी किसी राज्य-केंद्रित योजना की घोषणा नहीं की जाए, जिससे चुनाव वाले पांच राज्यों के मतदाताओं पर सत्तारूढ़ दलों के पक्ष में असर पड़ने की संभावना हो। निर्धारित समय से पहले बजट पेश करने के पीछे सरकार का तर्क यह है कि इससे सभी क्षेत्रों को 01 अप्रैल से नए वित्तीय वर्ष शुरू होने से पहले सभी बजटीय आवंटन किए जा सकेंगे।