नई दिल्ली, भारत में लगभग 600 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं जिनमें केन्द्रीय, राज्यीय, निजी और डीम्ड सभी सम्मिलित हैं। जहां 2020 तक एनरोलमेन्ट रेश्यो को 30 प्रतिशत तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है वहीं आज की स्थिति देखें तो देश के सबसे अच्छे कॉलेज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिन प्रतिदिन पिछड़ते जा रहे हैं। हाल ही में आई इंटरनेशनल टॉप 100 रैंकिंग में भारत के एक भी विश्वविद्यालय का कोई स्थान नहीं है। हैरत की बात है कि 1.1 अरब की आबादी और बेहतरीन विकासशील देश की शिक्षा जैसी नींव मजबूत नहीं है।
मशहूर शिक्षण संस्थानों में शुमार आईआईटी दिल्ली भी इस गरिमा को नहीं हासिल कर पाया इसके विपरीत वह 222वें स्थान से गिर गर 235वें स्थान पर पहुंच गया। इसके अलावा आईआईटी कानपुर 300, आईआईटी मद्रास 312, आईआईटी रुड़की 461 और आईआईटी गुवाहाटी 551वें स्थान पर रहे। केवल कलकत्ता यूनिवर्सिटी ने अपनी काबिलियत के बूते पर 659वें स्थान से 430वां स्थान प्राप्त कर स्तर में सुधार किया।
इस बारे में राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद् के वाइस चेयरमैन डॉ. कार्तिक श्रीधर कहते हैं कि वैश्वीकरण के साथ भारतीय विश्वविद्यालयों को प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए ये जरूरी है कि वे अपनी व्यवस्थाओं में इस तरह का बदलाव लायें जिससे दूसरे देशों के स्टूडेंट्स और अध्यापकों को आकर्षित कर सकें। रैंकिंग उनके निर्णयों को बहुत प्रभावित करती है इस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। ढेरों सेमिनार में इस विषय को गम्भीर तरीके से उठाने वाले आइवरी एजुकेशन के
डायरेक्टर कपिल कहते हैं कि विश्वविद्यालयो में रिसर्च के नाम पर पुराने दस्तावेजों से काम चलाया जाता है, नए पाठ्यक्रम तो तब बने जब कोई नयी रिसर्च हो। विद्यार्थी सालों से उसी सिलेबस को पढ़ रहे हैं। कॉलेजों के पास इतना बजट नहीं और न ही अध्यापकों पर इसके लिए जोर डाला जाता है। भारत की बात करें तो कई शिक्षण संस्थान हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करते हैं। लेकिन वे एक विषय से जुड़े हैं, जैसे आईआईटी विज्ञान, आईआईएम प्रबंधन के लिए विख्यात हैं। ईएसआई यूनिवर्सिटीज और कॉलेज बहुत ही कम हैं जो सभी विषयों की बेहतरीन शिक्षा दे सकें। इसकी वजह से रैंकिंग प्रभावित होती है। इसके अलावा स्टूडेंट को पूरी सुविधायें न मिलने का कारण भी मुख्य है।