दशहरे के अवसर पर यहां न तो रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले फूंके जाते हैं और न ही भगवान राम की विजय का जश्न ही मनाया जाता है। दशहरे का मतलब यहां स्थानीय देवी-देवताओं के आपसी मिलन समारोह से है या फिर यहां की सांस्कृतिक विरासत को बाहरी दुनिया के समक्ष पेश करने से। हालांकि यहां भी दशहरा उत्सव की शुरुआत भगवान राम के साथ जुड़ी है लेकिन इसका रामायणकाल से कोई वास्ता नहीं है। जी हां, हम बात कर रहे हैं कुल्लू में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय दशहरा उत्सव की।
दशहरे के दिन रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले फूंके जाने के साथ जहां देश भर में दशहरा उत्सव का समापन होता है, वहीं इस दिन भगवान रघुनाथ के ऐतिहासिक रथ को खींचने की पुरातन परंपरा के साथ कुल्लू के इस अनूठे अंतर्राष्ट्रीय दशहरा उत्सव की शुरुआत होती है। सप्ताह भर चलने वाले इस उत्सव के दौरान अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लोकनृत्यों के साथ-साथ देव संस्कृति और पहाड़ी परम्पराओं का जो समागम देखने को मिलता है, उसका आनंद ही कुछ और है। भीड़-भाड़ वाले एक बड़े मेले के रूप में तबदील हो चुका यह उत्सव स्थानीय लोगों की जरूरत के सामान को उपलब्ध करवाने का एक बेहतर अवसर भी साबित होता है। दशहरा मेले में यहां हर साल करोड़ों रुपए का कारोबार होता है। देश-विदेश में मशहूर कुल्लू दशहरे की खास खासियतों के कारण हर साल हजारों की संख्या में विदेशी और स्वदेशी पर्यटक भी यहां पहुंचते हैं। इस साल 22 अक्तूबर को शुरू हो रहा कुल्लू दशहरा 28 अक्तूबर तक चलेगा।
आधुनिक युग में जहां हमारे मेले, त्योहारों का स्वरूप भी आधुनिक होता जा रहा है, वहीं कुल्लू का यह दशहरा स्थानीय परम्पराओं और संस्कृति को उभारने और बढ़ावा देने का माध्यम साबित हो रहा है। स्थानीय नृत्य के साथ पारंपरिक वेशभूषा से लेकर यहां की पुरातन देव संस्कृति का जो प्रदर्शन दशहरा उत्सव के दौरान देखने को मिलता है, वैसा शायद ही कहीं और मिलता होगा। इस उत्सव को देखने के लिए हर साल लाखों की संख्या में सैलानी यहां पहुंचते हैं। कुल्लू घाटी के विभिन्न हिस्सों में स्थित साढ़े तीन सौ के करीब प्रमुख देवी-देवताओं में से ढाई सौ के लगभग उत्सव के दौरान अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। प्रकृति के विभिन्न रूपों के द्योतक माने जाने वाले ये देवी-देवता उत्सव के दौरान ढालपुर मैदान में ही डेरा डाले रहते हैं। इस दौरान भगवान रघुनाथ का डेरा भी यहीं डलता है। कुल्लू राजघराने के मौजूदा वंशज हर रोज शाही परिधानों में यहां राजदरबार भी लगाते हैं।
दशहरे के पहले दिन भगवान रघुनाथ के जिस रथ को खींचा जाता है, उसे अंतिम दिन ब्यास नदी के किनारे ले जाया जाता है। यहां से उसे वापस खींच कर अगले साल दशहरा उत्सव तक के लिए रथ मैदान के अंतिम छोर पर खड़ा कर दिया जाता है। रथ को खींचना शुभ माना जाता है, इसलिए रथ को खींचने की इस परंपरा को निभाने के लिए हजारों की संख्या में लोग यहां पहुंचते हैं। बड़ी-बड़ी रस्सियों के माध्यम से रथ को खींचने की यह परंपरा तभी से चली आ रही है जब से यहां दशहरा उत्सव नए स्वरूप में शुरू हुआ है।
जब तक रघुनाथ उत्सव में रहते हैं तब तक सभी देवी-देवताओं को भी वहीं रहना पड़ता है। इन पर होने वाला लाखों का खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाता है। इतना ही नहीं सरकार इन देवी-देवताओं को अपने-अपने स्थानों से कुल्लू तक आने पर होने वाले खर्च के रूप में टीए, डीए यानी नजराने की राशि भी प्रदान करती है।
कुल्लू घाटी के देवी-देवताओं की एक विशेषता यह भी है कि ये अपने भक्तों के साथ कारदार नाम के अपने कारिंदे की मार्फत पूरा संवाद करते हैं। देवी-देवता और भक्त अक्सर एक-दूसरे से नाराज भी हो जाते हैं। रथ यात्रा के दौरान भगवान रघुनाथ के दायीं और बायीं ओर चलने के पारंपरिक अधिकारों को लेकर भी अक्सर देवी-देवताओं में जंग छिड़ जाती है। कई बार देवता सरकार के भी विरुद्ध हो जाते हैं। लेकिन कुल मिलाकर हर विवाद का अंत में कोई न कोई समाधान निकल ही आता है। अपने देवी-देवताओं पर कुल्लू घाटी के लोगों का कितना विश्वास है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यहां के लोग अपनी लगभग हर समस्या के समाधान के लिए देवी-देवताओं पर निर्भर रहते हैं। किसी भी महत्वपूर्ण काम को करने से पहले वे देवी-देवताओं से जरूर पूछते हैं। अमेरिका की मशहूर कंपनी फोर्ड कुल्लू घाटी में अरबों रुपए की लागत से बनने वाली स्की विलेज परियोजना को केवल इसीलिए शुरू नहीं कर पाई क्योंकि घाटी के देवी-देवताओं ने इसे लगाने का विरोध कर दिया था। ऐसे अनेक मामले हैं जब घाटी में किसी पनबिजली परियोजना को इसलिए रोक दिया गया क्योंकि स्थानीय देवी-देवताओं ने इसकी इजाजत नहीं दी।
खुले आसमां तले लगता है डेरा
दशहरे में आने वाले बहुत से देवी-देवता कई-कई दिनों की यात्रा के बाद कुल्लू पहुंचते हैं। ये किसी वाहन आदि पर सवार होकर नहीं आते। दूरी चाहे कितनी भी हो, इन्हें इनके साथ चलने वाले भक्तगण अपने कंधों पर उठाकर पैदल ही लाते हैं। सफर के दौरान जब कभी विश्राम किया जाता है तो इस बात को सुनिश्चित बनाया जाता है कि देवी-देवताओं को किसी छत के नीचे न सुलाकर खुले आसमान के नीचे ठहराया जाए। स्थानीय परंपराओं के तहत अपना स्थान छोड़ने के बाद किसी भी देवी-देवता का छत के नीचे रहना निषिद्ध है। यही कारण है कि ये देवी-देवता रास्ते में पड़ने वाली चार किलोमीटर लम्बी लारजी सुरंग से भी नहीं गुजरना चाहते।
कुल्लू का दशहरा और भगवान रघुनाथ
कुल्लू में दशहरा उत्सव मनाए जाने की इस परंपरा से जुड़ी कहानी भी काफी रोचक है। कहा जाता है कि स्थानीय राजा जगत सिंह जिन्होंने सन् 1637 से लेकर 1672 तक कुल्लू पर राज किया, अपने एक लालच के कारण जब विपत्तियों में घिरे तो उनके संकट का समाधान अयोध्या से यहां लाई गई भगवान रघुनाथ की मूर्तियों से हुआ। कहा जाता है कि राजा जगत सिंह अपने राज्य में रहने वाले दुर्गादत्त नाम के एक गरीब ब्राह्मण के श्राप का शिकार हो गए थे। इस ब्राह्मण के पास अनमोल मोतियों का एक ऐसा खजाना था जिसे ज्ञान का भंडार माना जाता था। राजा को जब इन मोतियों के बारे में पता चला तो उन्होंने जोर जबरदस्ती से इन्हें हड़पने के लिए ब्राह्मण पर दबाव डालना शुरू कर दिया। पहले तो ब्राह्मण ने मोती देने से मना कर दिया लेकिन जब उसे यह अहसास हुआ कि राजा की ताकत के आगे वो नहीं टिक पाएगा तो उसने एक दिन राजा को मोती देने की घोषणा कर दी। लेकिन इससे पहले राजा को सबक सिखाने के लिए उसने अपने घर को आग लगा ली और परिवार सहित आग में जल गया। जलते-जलते वो राजा को बददुआएं भी दे गया। उसने चिल्लाते हुए कहा कि राजा तूने मुझसे मोती तो ले लिए लेकिन इसके बदले मेरे साथ जो कुछ हुआ है, वो अच्छा नहीं हुआ। मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि आज के बाद तुम्हें अपने खाने में कीड़े और पानी में खून नजर आएगा। कहते हैं ऐसा ही हुआ और राजा जगत सिंह के लिए खाना-पीना दूभर हो गया।
राजा को इस संकट से उबारने के लिए कई उपाय किए गए लेकिन कोई कारगर साबित नहीं हुआ। जब राजा की बीमारी ठीक नहीं हुई तो लोगों की चिंता बढ़ी। इसी समय कृष्णदत्त नाम के एक पहाड़ी बाबा ने राजा की बीमारी का एक नया उपाय सुझाया। पहाड़ी बाबा का कहना था कि राजा की इस बीमारी का सिर्फ एक ही इलाज है कि अयोध्या में रखी गई भगगवान रघुनाथ की मूर्तियों को कुल्लू लाया जाए और राजा उनके चरणामृत का सेवन करें। अयोध्या से मूर्तियों को कुल्लू लाना आसान नहीं था। इसके लिए किसी ऐसे आदमी की जरूरत थी जो चतुराई से मूर्तियां उठाकर अयोध्या से कुल्लू ले आए। काफी खोजबीन के बाद इस काम के लिए दामोदर दास नाम के एक व्यक्ति का चयन किया गया। कहते हैं कि दामोदर दास के पास गुटका सिद्धि नाम की एक अद्भुत शक्ति थी। दामोदर दास को अयोध्या भेज दिया गया। अयोध्या जाकर जुलाई 1651 में उसने अयोध्या के त्रेतनाथ मंदिर में रखी भगवान रघुनाथ की मूर्तियों को चुरा लिया। उसने इन मूर्तियों की पूजा-अर्चना करने वाले पुजारी से भी संपर्क स्थापित किया। पुजारी को इस बात के लिए मना लिया गया कि वो कुल्लू आकर इन मूर्तियों को विधि विधान के साथ पुनर्स्थापित कर देगा।
कहते हैं कि दामोदर दास जब मूर्तियों को लेकर अयोध्या की सीमा पर स्थित सरयू नदी के तट पर पहुंचा तो अयोध्या के लोग भी उसका पीछा करते-करते यहां पहुंच गए। इन लोगों ने उससे मूर्तियों को वापस ले लिया और अयोध्या की तरफ लौटने लगे। ऐसे में दामोदर दास ने इन्हें कुल्लू के राजा जगत सिंह पर आई विपत्ति और उसके निवारण के उपाय की बात बताई लेकिन ये लोग नहीं माने और इन्होंने मूर्तियों को वापस अयोध्या ले जाने का फैसला ले लिया। लेकिन बताते हैं कि जब ये लोग लौटने लगे तो मूर्तियां इतनी भारी हो गई कि इन्हें उठाना संभव नहीं रहा। सभी लोग उस समय आश्चर्यचकित रह गए जब विपरीत दिशा में कुल्लू की तरफ ले जाने पर मूर्तियां फिर से हल्की हो गई। ऐसे में मान लिया गया कि कुल्लू के राजा की समस्या के समाधान के लिए भगवान रघुनाथ खुद अयोध्या से कुल्लू जाना चाह रहे हैं।
कुल्लू पहुंचने पर भगवान रघुनाथ की मूर्तियों का जोरदार स्वागत किया गया। विधि-विधान के साथ सुल्तानपुर के रघुनाथ मंदिर में उनकी स्थापना की गई। इस मंदिर में आज भी ये मूर्तियां विद्यमान हैं। स्थापना के बाद राजा ने मूर्ति के चरणों का अमृत पिया। धीरे-धीरे वे ठीक होने लगे और एक समय आया कि वे पूरी तरह से स्वस्थ हो गए। इस चमत्कार से अभिभूत राजा के मन में रघुनाथ जी के प्रति ऐसी अगाध श्रद्धा पैदा हो गई कि उन्होंने अपना राजपाठ रघुनाथ जी के नाम कर दिया और खुद इनके छड़ीबरदार यानी सेवक बन गए। इस घटना का कुल्लू घाटी के जनमानस पर इतना असर पड़ा कि घाटी के सभी देवी-देवताओं ने भी भगवान रघुनाथ की सत्ता स्वीकार कर ली। इस अवसर पर राजा ने सभी देवी-देवताओं से आग्रह किया कि वे दशहरे वाले दिन कुल्लू में जमा होकर भगवान रघुनाथ के सम्मान में निकाली जाने वाली रथ यात्रा में भाग लें। तब से लेकर आज तक कुल्लू दशहरे के पहले दिन भगवान रघुनाथ की रथ यात्रा निकाली जाती है और हफ्ता भर चलने वाले इस उत्सव का समापन भी उनके रथ की वापसी के साथ होता है।
…शुक्र है मिल गये देवता
कुल्लू के ऐतिहासिक रघुनाथ मंदिर से पिछले साल अयोध्या से लाई गई मूर्तियां चोरी हो गई थी। बाद में इन्हें नेपाल से बरामद किया गया। जब तक ये मूर्तियां नहीं मिलीं, तब तक कुल्लू घाटी शोक में डूबी रही। अगर ये मूर्तियां न मिलतीं तो निश्चित तौर पर सैकड़ों साल से इन्हें रथ में बिठाकर यहां दशहरे पर निकाले जाने वाली रथ यात्रा की महत्ता पर व्यापक असर पड़ता।
नाटी ने रिकार्ड की ठानी
कुल्लू दशहरे में नाटी इस बार वर्ल्ड रिकार्ड बनायेगी और हज़ारों पर्यटक बनेंगे उस विश्व कीर्तिमान के गवाह, जिसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज किया जाएगा। कुल्लू जिला प्रशासन ने इस दफा ढालपुर के रथ मैदान में एक साथ 12 हजार से ज्यादा नर्तकों के नाच का नया विश्व कीर्तिमान स्थापित करने की ठानी है। कुल्लू की पारंपरिक वेशभूषा में होने वाले इस नृत्य में महिलाओं के साथ-साथ पुरुष भी भाग ले सकेंगे। पहाड़ी नृत्य जिसे स्थानीय भाषा में नाटी कहा जाता है, में जब स्थानीय वाद्य यंत्रों की गूंज के बीच एक साथ हजारों लोगों के पांव थिरकेंगे तो एक ऐसा नजारा पेश होगा जिसे पहले किसी ने कभी नहीं देखा होगा।
थिरके थे पांव, बना था इतिहास
इस बार एक साथ 12 हजार से ज्यादा लोग नृत्य करके गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में तो अपना नाम दर्ज कराएंगे ही, साथ ही इसी तरह के अपने पिछले साल के रिकॉर्ड को भी तोड़ेंगे। कुल्लू के जिला उपायुक्त राकेश कंवर के अनुसार पिछले साल साढ़े आठ हजार से ज्यादा महिलाओं ने नृत्य करके विश्व रिकॉर्ड बनाया था, जिसे लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में जगह मिली।
सिड्डू, मोमो के दीवाने
मेले का माहौल हो और लजीज व्यंजनों की बात न हो तो मस्ती का माहौल नहीं बनता। कुल्लू दशहरे में पारंपरिक परिधानों की खरीददारी के साथ-साथ लजीज पहाड़ी व्यंजनों का भी भरपूर लुत्फ उठाया जाता है। पिछले कई साल से दशहरा मेले के एक हिस्से में केवल पारंपरिक व्यंजनों के स्टॉल ही लगाए जाते हैं। यहां आपको सिड्डू, मोमो और कचौड़ी जैसी पारंपरिक चीजें खाने को मिल सकती हैं। आमतौर पर मेलों में जहां चाट-पकौड़ी ज्यादा बिकती हैं, वहीं कुल्लू के दशहरे में स्थानीय पहाड़ी व्यंजनों की बिक्री का जोर रहता है। एक अनुमान के अनुसार हर साल दशहरे में एक-डेढ़ करोड़ के पहाड़ी व्यंजनों की बिक्री हो जाती है। यानी लोग चट कर जाते हैं करोड़ों रुपये के स्नैक्स।