गोरखपर, प्रख्यात साहित्यकार एवं कथाकार मुंशी प्रेमचन्द की जयंती पर उन्हें विशेष रूप से याद करते हुए फिर से किसान आन्दोलन से जोड़कर देखा जा रहा है, क्योंकि किसान आज भी वहीं है जहां उन्होंने अपनी कहानियों में उसे छोडा था।
भारतीय किसानों को साहित्य के प्रतिविम्ब पर खड़ा करने वाले मुंशी प्रेम चन्द की प्रासंगिकता मौजूदा समय में और
बढ़ गयी है। आज की परिस्थिति में किसान वहीं खडा हुआ है जहां मुंशी प्रेम चन्द जी ने अपनी कहानियों में छोड़ा था।
समाज की बारिकियों को अपनी कलाजयी कृतियों में बेहद खूबसूरती से पिरोने वाले कथाकार-उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द
के विचारों की प्रासंगिकता से शायद ही कोई इंकार कर सकता है। दुखद पहलू यह है कि प्रासंगिकता होने के बावजूद भी
कृतियां नयी पीढ़ी तक नहीं पहुंच पा रही हैं। अध्ययन के दायरे में आने वाले कहानियों और उपन्यासों को तो नयी पीढ़ी जरूरत समझकर पढ़ ले रही है लेकिन उनकी अन्य मशहूर कृतियों को पढ़नेकी जदोजहद इन युवाओं में नहीं दिख रही है।
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 जन्म वाराणसी से चार मील दूर लमही गांव में हुआ था। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फ़ारसी पढ़ने से हुआ। उन्होंने 1898 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद वह एक स्थानिक पाठशाला में अध्यापक नियुक्त हो गए। वर्ष 1910 में वह इंटर और 1919 में बी.ए. पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। प्रख्यात साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द का बचपन और आधा रचना संसार पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की धरती से जुड़ी है।