खेती, कारीगरी, शिक्षा , आज की जरूरत के अनुरूप हो: गोविंदाचार्य

नई दिल्ली, खेती, कारीगरी, शिक्षा को भारत की तासीर और आज की जरूरत को ध्यान में रखकर आगे बढ़ाने की वकालत करते हुए जाने माने चिंतक के एन गोविंदाचार्य ने कहा है कि सरसों या अन्य आनुवांशिक रूप से परिवर्तित (जीएम) फसल लेना उतना खतरना नहीं है जितना कि इसके पीछे की उत्पादन एवं उपभोग की अनैतिक सोच है और ऐसे में देशज ग्यान और आधुनिक विग्यान का मेल और संतुलन बैठाने की जरूरत है। गोविंदाचार्य ने कहा कि कृषि, गौपालन, वाणिज्य को जोड़कर देखे जाने की जरूरत है। इसके कारण ही प्रकृति के साथ जीवन का मेल बिठाकर जीने की शैली हजारों वर्षो में विकसित हो सकी है और देशज ग्यान भंडार बन सका। विगत 200 वर्षो में इस संरचना को जानबूझाकर उपनिवेशवादी मानसिकता ने आजादी के पहले और आजादी के बाद तोड़ने का काम किया है। उन्होंने कहा कि यह समझाने की बात है कि भारत की सवा सौ करोड़ आबादी में से 57 फीसदी हिस्सा खेती पर निर्भर है। उसकी क्रय शक्ति बहुत कम है। खेती के माल का दाम किसानों को कम मिलता है और उसे लगने वाली खाद, बीज, कीटनाशक दवा, बिजली, परिवहन आदि औधोगिक माल की कीमत अधिक है। गोविंदाचार्य ने कहा कि अब खेती में जीएम सरसों को प्रचलित करने में आ रही उलझानों को खत्म कर लिया गया है अर्थात बाजारवादी ताकतों ने भारतीय समाज और सरकार द्वारा प्रकट आशंकाओं को नजरंदाज कर सरकारी तंत्र को पटा लिया है। उन्होंने कहा कि इसके पहले भी दो तीन वर्षो से खबरें चल रही थी कि तमाम कायदे कानूनों को ताख पर रखकर फील्ड ट्रायल भी चलाया गया। सरसों की जीएम फसल लेना स्वयं में उतना खतरनाक नहीं है जितना इसके पीछे की उत्पादन एवं उपभोग की अनैतिक सोच। आरएसएस के प्रचारक रहे गोविंदाचार्य ने कहा कि कृषि एक जैविक प्रक्रिया है। कृषि में जैव प्रौद्योगिकी का प्रयोग करते समय अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है, हम भले ही प्रयोग सीमित क्षेत्र में कर रहे हो। हवा का बहाव पशु, पक्षी, कीट, पतंग के माध्यम से प्रयोग क्षेत्र से कई किलोमीटर दूर भी गलत असर संचारित हो सकता है।