नई दिल्ली, दो दशकों तक गुजरात की सत्ता पर काबिज रही बीजेपी को इस बार के चुनावों में कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिली है।कांग्रेस को बहुमत भले ही न मिला हो लेकिन परिणाम निराश करने वाले नहीं हैं और पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले उसके ज्यादा उम्मीदवारों को जीत मिली है।
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सच तो यह है कि बीजेपी को यह चुनौती कांग्रेस से नही बल्कि सामाजिक न्याय के हकदार समुदायों से मिली है, दलित, पिछड़े वर्ग, आदिवासी, मुस्लिम और पाटीदार समुदाय की ओर से मिली है। गुजरात में दलित, पिछड़ा वर्ग, आदिवासी, मुस्लिम और पाटीदार समुदाय की ओर से कहा जाता रहा है कि सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने उन्हें हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया, जबकि इस समुदाय की राज्य मे अच्छी-खासी आबादी है।
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इन समुदायों को असंतुष्ट देख कांग्रेस ने इनका पूरा फायदा उठाने की कोशिश की। उसने 22 साल बाद राज्य की सत्ता में वापसी के लिए जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल, छोटू भाई वसावा और अल्पेश ठाकोर जैसे अपने- अपने समुदायों के लिये सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे नेताओं को सहयोग कर राजनैतिक लाभ लेने की कोशिश की। कांग्रेस की यह रणनीति सफल रही और उसे लाभ मिला भी। यह साफ दिख रहा है कि इन समुदायों ने नतीजों में बड़ी भूमिका निभायी।
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2014 में बीजेपी को गुजरात की सभी 26 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी यानि विधानसभा क्षेत्रवार देखा जाये तो 162 सीटों पर बढ़त मिली थी और 60% वोट भी मिले थे। लेकिन अबकी बार 2017 मे मात्र 99 सीटें मिलीं और महज 49 % वोट मिले यानि 2014 से 11% कम वोट और 63 सीटें कम मिलीं।अगर यही परफॉर्मेंस बीजेपी 2017 विधानसभा चुनाव में दोहरा देती तो 150 सीटों के अपने टारगेट से भी ज्यादा सीटें हासिल कर लेती।
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लेकिन बीजेपी दो अंकों का आंकड़ा भी नही पार कर पाई और उसे महज 99 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। जिसका सबसे बड़ा कारण दलित, पिछड़ा वर्ग, आदिवासी, मुस्लिम और पाटीदार समुदाय रहे। अपने- अपने समुदायों के लिये सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे नेताओं के चेहरों ने गुजरात विधानसभा चुनावों को नया रंग दे दिया। ये नाम हैं -हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, छोटू भाई वसावा और अल्पेश ठाकोर। विधानसभा चुनाव मे जहां इन नेताओं ने अपने समुदायों का वोट कांग्रेस को दिलवाया वहीं जिग्नेश मेवाणी, छोटू भाई वसावा और अल्पेश ठाकोर ने खुद जीत भी दर्ज कर ली है साथ ही मुस्लिम विधायकों की संख्या भी बढ़ी है।
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2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में सिर्फ दो मुस्लिम उम्मीदवारों को जीत मिली थी। इस विधानसभा चुनाव में चार ने जीत का स्वाद चखा है। पिछले विधानसभा चुनाव में गयासुद्दीन शेख अहदाबाद के दरियापुर से और पीरजदा राजकोट की वानकानेर सीट से विधायक चुने गए थे। 2017 में फिर से यह दोनों उम्मीदवार अपनी सीट से चुनाव जीतने में सफल रहे। इनके अलावा डासडा से नौशादजी और जमालपुर खाड़िया से इमरान युसुफ ने जीत दर्ज की है। जिससे गुजरात विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या बढ़कर पहले से दोगुनी हो गई है।
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कुल मिलाकर एकबार फिर मंडल, कमंडल पर भारी पड़ा, लेकिन कांग्रेस को सत्ता के सिंहासन तक नही पहुंचा सका। थोड़ी सी कमी रह गई। यह कमी थी पूरे चुनाव को लीड करने के लिये सामाजिक न्याय के महानायक लालू प्रसाद यादव जैसे नेता की। जो मंदिर, हिंदुत्व , मुसलमान, नीच, पाकिस्तान आदि जैसे मुद्दे पर जब दहाड़ते तो पूरे चुनावी अभियान पर छा जाते। इसके उलट कांग्रेस इन मुद्दों पर बचाव करती नजर आयी। बचाव मे कभी उसने राहुल गांधी को जनेऊधारी ब्राह्मण बताया, तो नीच शब्द पर मणिशंकर अय्यर से माफी मंगवायी, तो कभी कपिल सिब्बल के बयान से किनारा कसती नजर आयी।
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लेकिन, गुजरात मे हुयी कांग्रेस की इस हार से, विपक्ष को 2019 मे लोकसभा चुनाव मे जीत का एक बड़ा फार्मूला हाथ लग गया। यह है मंडल – कमंडल का फार्मूला, सामाजिक न्याय का फार्मूला। जो बिहार विधान सभा चुनाव मे सामाजिक न्याय के महानायक लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व मे पूरी तरह सफल रहा था। अगर कांग्रेस को 2019 मे लोकसभा चुनाव मे बहुमत पाकर केंद्र मे सरकार बनानी है तो सामाजिक न्याय के फार्मूले को अपनाना होगा। सामाजिक न्याय के घटक दलित, पिछड़ा वर्ग, आदिवासी, मुस्लिमों और पाटीदारों आदि के मुददों की लड़ाई लड़नी होगी, तभी वह देश मे साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता मे आने से रोकने के अपने अभियान मे सफल हो पायेगी।