नयी दिल्ली, वह नंगे पैर स्कूल जाती थी, बाबा के साथ खेतों में काम करती थी पर सब्जी के साथ भरपेट खाना कभी नहीं खा पाती थी। छत टपकती थी तो मां के साथ मिलकर घर में घुसा पानी उलीचती थी और पक्के मकान का सपना देखती थी। इन्हीं छोटी छोटी मुश्किलों और छोटे छोटे सपनों के बीच बड़ी हुई साध्वी सावित्रीबाई फुले आज इस मुकाम पर हैं कि अपने समाज को उसका हक दिलाने के लिए देश की सबसे बड़ी पार्टी को छोड़ देने का हौसला रखती हैं।
16वीं लोकसभा में कई बड़े बड़े नामों के बीच साध्वी सावित्रीबाई फुले एक ऐसी शख्सियत हैं, जो अपने सामने आने वाली तमाम चुनौतियों से पूरी ताकत से लड़ती हैं और हर कदम पर अपने आसपास रहने वाले लोगों को एक बेहतर जीवन देने के संकल्प के साथ आगे बढ़ती हैं।
उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के नानपारा में खेतों में काम करने वाले मजदूर अज्ञा राम और मायावती के यहां एक जनवरी 1981 को बेटी का जन्म हुआ। दादा ने यह कहकर उसका नाम धनदेई रख दिया कि हम जो कमाकर लाएंगे यह शादी के समय सब लेकर चली जाएगी। पिता ने बाद में उसका नाम सावित्री रखा।
बच्ची बड़ी होने लगी तो व्यवस्था की खामियों की तरफ उसका ध्यान जाने लगा। छठी कक्षा में उसे सरकार की तरफ से 480 रूपए का वजीफा मिला, लेकिन स्कूल मास्टर ने यह कहकर रकम देने से इंकार कर दिया कि हमने तुमको पास किया है इसलिए इस पैसे पर हमारा हक है। लड़की नहीं मानी और जब जिद करने लगी तो स्कूल से निकाल बाहर कर दिया गया। अगर 10-11 साल की कोई और लड़की होती तो व्यवस्था के सामने घुटने टेक देती, लेकिन सावित्री ने इसे एक चुनौती के तौर पर लिया और लखनऊ में मायावती के जनता दरबार तक जा पहुंची।
मायावती ने उसकी फरियाद सुनी और उसे सीधे इंटर कालेज में दाखिला दिला दिया। सावित्री कहती हैं कि उस दिन उन्हें ‘पावर’ की ताकत का एहसास हुआ और यह राजनीति से उनका पहला परिचय था। इसके बाद एक और घटना ने उन्हें सक्रिय राजनीति के और करीब पहुंचा दिया। 16 दिसंबर 1995 को लखनऊ में एक आंदोलन के दौरान उन्हें गोली लगी और समाज के लिए कुछ करने का जज्बा कहीं जड़ पकड़ने लगा।
सावित्री के माता पिता ने छह साल की उम्र में ही उनकी शादी कर दी थी। बिदाई हालांकि नहीं हुई थी, पर बंधन तो बंधा था, जो उन्हें सदा कचोटता था। सावित्री कहती हैं कि वह यह तो जान चुकी थीं कि बंधन में रहकर समाज के लिए कुछ नहीं कर पाएंगी, लिहाजा उन्होंने बड़ा फैसला किया और जिस व्यक्ति के साथ उनका विवाह हुआ था, उनके साथ अपनी छोटी बहन का विवाह करवा दिया और उसी समय अपना सारा जीवन समाज को समर्पित करने का संकल्प लेने के साथ ही भगवा धारण कर लिया।
राजनीति में आने के बाद का सावित्री का जीवन खुली किताब की तरह है, लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्हें लंबा रास्ता तय करना पड़ा। इस सफर में उनके राजनीतिक गुरू अक्षरवर नाथ कनौजिया ने उनका साथ दिया। कनौजिया बताते हैं कि उन दिनों मायावती की बहुजन समाज पार्टी के प्रचार के लिए सभाएं हुआ करती थीं और वह सावित्री को उन सभाओं में ले जाते थे कागज पर लिखकर कुछ शब्द देकर मंच पर पढ़ने भेजते थे।
धीरे धीरे सावित्री ने सियासी तकरीरों का हुनर सीख लिया और फिर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती की एक सभा में प्रभावी भाषण देकर बसपा में पहुंचने का रास्ता तलाश लिया। हालांकि बसपा के साथ उनका रिश्ता ज्यादा समय तक नहीं चला और वर्ष 2000 में वह भाजपा में शामिल हो गईं। 2014 में लोकसभा का चुनाव जीतकर देश की सबसे प्रतिष्ठित इमारत में बैठने का हक हासिल करने वाली साध्वी सावित्रीबाई फुले ने हाल ही में भाजपा का दामन छोड़ दिया है और ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि वह फिर से बसपा की हमसफर हो सकती हैं।