नयी दिल्ली, माइक्रोसॉफ्ट के सत्य नडेला हों या गूगल के सुंदर पिचाई और पेप्सिको की इंदिरा नूयी, दुनियाभर की दिग्गज कंपनियों का प्रबंधन भारतीयों के हाथ में हैं। भारतीय प्रबंधकों की विदेशों में सफलता के झंडे गाड़ने की कहानियां अब भारत में उतना रोमांच पैदा नहीं करती क्योंकि यह आम हो चुका है।
लेकिन ऐसी क्या बात है जिसकी वजह से भारतीय प्रबंधकों की दुनियाभर में पूछ है, यह खुलासा ‘द मेड इन इंडिया मैनेजर’ किताब में किया गया है। दो व्यापार विशेषज्ञ आर. गोपालकृष्णन और रंजन बनर्जी ने अपनी किताब में इस ‘मेड इन इंडिया’ प्रबंधक का मतलब भी समझाया है। किताब में इसका आशय ऐसे प्रबंधकों से है जिन्होंने अपनी ‘बुनियादी शिक्षा और 18 वर्ष से थोड़ी अधिक उम्र तक डिग्रियां भारत में प्राप्त की हैं।’ इसमें ऐसे लोगों को शामिल नहीं किया गया जो भारतीय मूल के हैं या वहां जन्में हैं लेकिन पले-बढ़े विदेश में हैं।
यह किताब भारत में मौजूद विभिन्न चुनौतियों के उन ‘अनोखे संयोग’ के बारे में बात करती है जिसकी वजह से भारतीय प्रबंधन की दुनियाभर में पूछ परख है और इस दिशा में भारत एक ‘सॉफ्ट पावर’ बन रहा है। स्टैंडर्ड एंड पुअर्स की 500 कंपनियों की सूची में अमेरिकियों के बाद सबसे अधिक प्रबंधक भारतीय ही हैं। किताब में इस संबंध में एगोन जेंडर कंपनी द्वारा किए गए अध्ययन का हवाला दिया गया है। लेखकों के अनुसार, ‘‘गरीबी और अभाव में तो लोग मिस्र और सैन सल्वाडोर में भी रहते हैं। पारिवारिक मुल्य और बेहतर जीवन स्तर की चाह भी हर समाज की अवधारणा में शामिल है। लेकिन भारत में मौजूद चुनौतियों का संयोग बहुत विशिष्ट है। उम्र के साथ बढ़ते-बढ़ते इन चुनौतियों से जूझने की विकसित होती क्षमता ही भारतीय प्रबंधकों को अलग बनाती है।’’
यह किताब कई प्रमुख कारणों के बारे में बताती है। इसमें भारतीय समाज में ‘अंग्रेजी को लेकर सामंजस्य‘, ‘अति प्रतिस्पर्धी माहौल में पलना-बढ़ना’ और ‘ग्रहण करने की उच्च क्षमता का विकसित होना’ शामिल है। किताब में यूरोप में हीरा कारोबार के 70 प्रतिशत कारोबार पर गुजराती व्यापारियों के नियंत्रण का उदाहरण भी दिया गया है। इंफोसिस के संस्थापक एन. आर. नारायणमूर्ति ने भी 2003 में सीबीएस न्यूज को दिए साक्षात्कार में कहा था कि उनके बेटे को आईआईटी में प्रवेश नहीं मिल सका जबकि अमेरिका के एक प्रतिष्ठित कॉलेज कॉरनैल में प्रवेश मिल गया था।