लखनऊ, दलित राजनीति के जरिये फली-फूली बसपा की हालिया विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद यह सवाल खड़ा हो गया है कि अब दलित आंदोलन का क्या होगा। क्योंकि अगर हम पिछले एक दशक से देखें तो दलितों से जुड़े सवालों को ना तो सदन में गम्भीरता से उठाया गया और ना ही सड़क पर आंदोलन हुआ।
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दलितों पर अत्याचार,दलित महिलाओं और लड़कियों से बलात्कार की घटनायें, सरकारी विभागों के ठेकों मे आरक्षण को समाप्त करना, प्रोन्नति में आरक्षण खत्म करना, सरकारी नौकरियों मे दलितों का बैकलाग न पूरा किया जाना, दलित अधिकारियों- कर्मचारियों से भेदभाव आदि अनेकों मुद्दे हैं, लेकिन कहीं कोई आंदोलन नहीं किया जा रहा है। एेसा लग रहा है कि राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र मे दलितों मे नेतृत्व क्षमता ही समाप्त हो गयी है। प्रश्न ऊठता है क्या अब दलित आंदोलनों की प्रासंगिकता समाप्त हो गयी है।
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इस पर, अम्बेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाक्टर लालजी निर्मल ने बताया कि दलितों के सवाल अब भी जिंदा हैं और अभी तक उन्हें भागीदारी नहीं मिली है, लिहाजा आंदोलन तो प्रासंगिक है। मुख्यधारा के बड़े राजनीतिक दल बसपा के पराभव से दलित राजनीति में पैदा हुए खालीपन को भरने की कोशिश भी कर सकते हैं। डा० निर्मल ने कहा कि अगर कोई दल बड़ा दलित एजेंडा लाकर उस पर ईमानदारी से काम करता है तो दलित उस ओर मुड़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो अलग दलित राजनीति का भविष्य समाप्त हो जाएगा। उन्होंने कहा कि इस बार दलितों वोटों का सुनामी विचलन हुआ है। हालांकि विचलन कोई नयी बात नहीं है।
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उन्होने बताया कि दलितों को सत्ता के नजदीक लाने के पीछे दलित सामाजिक आंदोलनों की बहुत अहम भूमिका है। दलित आंदोलन और दलित राजनीति के लिये उत्तर प्रदेश की धरती काफी उर्वरा रही है। बसपा संस्थापक कांशीराम ने वर्ण व्यवस्था को लेकर दलितों तथा पिछड़ों में व्याप्त तीव्रतम आक्रोश के सहारे दलितों, पिछड़ों और पसमांदा मुसलमानों को लामबन्द किया। यह बहुत बड़ा परिवर्तन था, और इससे लोगों में बहुत उम्मीद जागी थी।
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डा० निर्मल ने कहा कि जब कांशीराम के निधन के बाद मायावती ने सत्ता में आने पर गैर-दलित और गैर-पिछड़े वर्गों को अपने बहुत करीब करने की कोशिश की। जब वह बहुजन से सर्वजन की तरफ गयीं तो दलितों में शंका उभरी, कि क्या यही कांशीराम का रास्ता है। वर्ष 2007 से 2012 के बीच जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उनके और दलितों के बीच संवाद के सारे रास्ते बंद हो गये। उन्होंने कहा कि मायावती ने बाकी सभी वर्गों में नेतृत्व पैदा किया लेकिन दलितों का कोई नेतृत्व नहीं पनपने दिया। ब्राहमणों, पिछड़ों तथा अल्पसंख्यकों में तो नेतृत्व को मजबूत किया, लेकिन दलितों के पास ऐसा कोई नेता नहीं था, जिससे वे अपनी समस्याएं कह पाते।
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डा०निर्मल ने बताया कि मायावती ने इन भाईचारा समितियों के जरिये दलितों की हर उपजाति को मजबूत किया। वे उपजातियां जब मजबूत हुई तो उन्होंने संख्या के हिसाब से अपनी हिस्सेदारी मांगनी शुरू की, जो उन्हें नहीं मिल सकी। इससे उनके अंदर विलचन शुरू हुआ, और बड़ी संख्या में वर्ष 2012 में दलित समाजवादी पार्टी के साथ चले गये।
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अम्बेडकर महासभा अध्यक्ष ने कहा कि मायावती ने सड़क पर कभी कोई आंदोलन नहीं किया। मायावती की बसपा ने सिर्फ तीन आंदोलन ही किये, जो दलित हित के लिये नहीं बल्कि स्वहित से जुड़े मामलों को लेकर थे। प्रोन्नति में आरक्षण खत्म हुआ, रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या हुई, हरियाणा में दलित महिलाओं और लड़कियों से बलात्कार हुआ, मिर्चपुर में इतना अत्याचार हुआ लेकिन बसपा ने सड़क पर कोई आंदोलन नहीं किया।
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उन्होंने कहा कि वर्ष 2012 से लेकर 2017 तक मुख्य विपक्षी होते हुए भी दलितों से जुड़े सवालों को ना तो सदन में गम्भीरता से उठाया गया और ना ही सड़क पर आंदोलन हुआ। दलितों के घर-घर तक यह संदेश चला गया कि मायावती धन लेकर चुनाव टिकट बेचती हैं और विरोधी दल यह समझाने में सफल रहे कि मायावती टिकट नहीं बेच रही है, बल्कि दलितों को बेच रही है।