शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2014 में मूर्त रूप से सामने आये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) और सविधान के 99वें संसोधन को असवेंधानिक घोषित कर दिया, वहीँ न्यायपालिका ने इस मामले को बड़ी बेंच में भेजने की याचिका भी खारिज करते हुए कोलेजियम सिस्टम जारी रखने का आदेश दे दिया| हालांकि न्यायपालिका ने कोलेजियम सिस्टम में भी कुछ खामियों की बात स्वीकार करते हुए सुधार के लिए 3 नवम्बर 2015 को अगली सुनवाई की तारीख निश्चित की है| लेकिन अपने इस फैसले से साथ ही देश में न्यायपालिका की स्वतंत्रता या या फिर कहे जजों की स्वतंत्रता जैसे बड़े सवाल खड़े कर दिए है| सवाल कुछ ऐसे जो न्यायपालिका में सुधार की बात करते है| लेकिन देश की पार्लियामेंट द्वारा जिन सुधारों पर जोर दिया जा रहा था वो किस हद्द तक सही है| क्या वो देश के लोकतंत्र की बचाए रखते है या फिर इससे लोकतंत्र को नुक्सान है|
आखिर आज किन आधारों पर NJAC को ख़त्म कर दिया गया, देश की पार्लियामेंट जिसे जनता का प्रतिनिधि माना जाता है| क्या उसके द्वारा लिए गए फैसले और उसे न्यायपालिका द्वारा रद्द किया जाना विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव को नहीं बढ़ा रहा है| इन सभी सवालों के जवाब के लिए इतिहास के साथ-साथ विधायिका और न्यायपालिका के वर्तामन रूप को समझना होगा और न्यायपालिका में सुधार की मांगों और तर्कों को समझना होगा|
एनजेएसी मतलब राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग एक ऐसा आयोग जिससे देश की न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति की आधारशिला को लिखा जाना था| 1993 के चली आ रही ये कोलेजियम सिस्टम जिसकी शुरुवात न्यायपालिका ने खुद ही तीन बड़े फैसलों के बाद कर दी थी| ये एक ऐसी प्रणाली है जहाँ उच्च न्यायलय और उच्चतम न्यायलय के न्यायधीश कौन बनेगा और कौन नहीं ये इसका निर्णय मुख्य न्यायधीश और अन्य 4 वरिष्ठ न्यायधीश के द्वारा इनकी अनुशंसा की जाएगी| यह सिफारिश विचार और स्वीकृति के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भेजी जाती थी. इस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद संबंधित नियुक्ति की जाती थी. लेकिन 1993 के एक फैसले के आधार पर अगर राष्ट्रपति ऐसे किसी नाम की नियुक्ति से मना करते है तो उन्हें इसकी कोई ठोस वजह देनी होगी| एक तरह इस पूरी प्रणाली के आधार में न्यायधीशों को चुननें का पूरा अधिकार न्यायपालिका और इन 5 जजों के समूह के पास होता है|
न्यायधीशों को चुननें के इस एकाधिकार में देश, राजनीतिक और जनता द्वारा कई बार सवाल उठते रहे है| न्यायपालिका से जुड़ा एक बड़ा समूह चाहे वो वकीलों का हो या फिर जजों का वो इसका विरोध करते आये है| उन्होंने हमेशा इसके पारदर्शिता पर सावल उठाये है| इस प्रणाली के अंतर्गत ये आरोप लगते रहे है की मुख्य न्यायधीश और अन्य न्यायधीश द्वारा अपने सगे संबंधी नाते रिश्तेदार और जाननेवालों को ही आगे बढ़ाते आये है| जिससें न्यायपालिका में भी वंशवाद का आरोप लगता रहा है| अपने इस ही एकाधिकार के कारण न्यायपालिका का सही से काम न कर पाना और भ्रष्ट्राचार में सहयोग करने के भी आरोप लगते रहे है|
नेशनल लॉयरस कैंपेन फॉर जुडिशल ट्रांसपरेंसी एंड रिफार्म मंच द्वारा एक रिसर्च में देश में सभी उच्च न्यायलय में 60% से भी अधिक ऐसे जज नियुक्त है जो किसी न किसी वरिष्ठ वकील या फिर जज के रिश्तेदार है| NLCJTR द्वारा आरोप लगाया गया है की देश की न्यायपालिका भी वंशवाद के दंश झेल रही है| जिससे देश की न्यायिक व्यवस्था काफी कमजोर और भ्रष्ट्र हो गई है|
“नेशनल लॉयरस कैंपेन फॉर जुडिशल ट्रांसपरेंसी एंड रिफार्म” और “नेशनल लितिगंत बेंच” जैसे वकीलों और समाज सेवियों के समूह द्वारा न्यायपालिका बड़े हद्द तक बदलाव की मांग करते आये है| NLCJTR के अध्यक्ष और मुंबई हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील मथेव्स. जे. नेदुम्पारा के अनुसार “न्यायपालिका आखिर किससे स्वतंत्रता की बात करती है, हम एक स्वतंत्र देश में ही है क्या वो इस देश की लोकतंत्र और प्रणाली की स्वतंत्रता की बात कर रही है| भारतीय राजनीतिक प्रणाली में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका एक दुसरे से जुड़े हुए है एक दुसरे के पूरक है तो फिर न्यायपालिका इनसें अलग कैसे स्वतंत्रता की बात करती है|”
न्यायपालिका में रिफार्म की बात करते हुए NLCJTR और NLB जैसे मंच NJAC और कोर्ट रूम की विडियो रिकॉर्डिंग की मांग करते आये है| NLB के अध्यक्ष मनोज डेविड के अनुसार “जब विधायिका की विडियो रिकॉर्डिंग हो सकती है तो लोकतंत्र और ट्रांसपरेंसी की बात करने वाली न्यायपालिका में विडियो रिकॉर्डिंग क्यों नहीं हो सकती| जब देश के सविंधान हमें ऐसा करने से बाध्य भी नहीं करता|”
वहीँ इसके बिलकुल उलट राष्ट्रिय न्यायिक नियुक्ति आयोग में कुल छह सदस्य रखने की बात थी. भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) इसके अध्यक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश इसके सदस्य होंगे. केंद्रीय कानून मंत्री को इसका पदेन सदस्य बनाए जाने का प्रस्ताव था. दो प्रबुद्ध नागरिक इसके सदस्य होंगे, जिनका चयन प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सहित तीन सदस्यों वाली समिति करेगी. अगर लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं होगा तो सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता चयन समिति में होगा.
NJAC के मूल में खामियां बताते हुए आज सुप्रीम कोर्ट में इसे रद्द कर दिया वहीँ इसके साथ-साथ एक ऐसा बड़ा समूह जो NJAC को देश के लोकतंत्र और न्यायपालिका की आज़ादी के खिलाफ़ बता रहा था| उनके अनुसार इस आयोग में समाज से दो प्रोमिनेंट लोग है और उनकी परिभाषा स्पष्ट नहीं है| जिससे संविधानिक टकराव की समस्या खड़ी होने का खतरा बन गया| वहीँ न्यायपालिका में राजनेता और राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप लोकतंत्र के खिलाफ़ है| वरिष्ठ वकील राम. जेठमलानी के अनुसार “एक भ्रष्ट्र राजनीति एक भ्रष्ट्र न्यायपालिका भी चाहेगा, जिससें देश के लोकतंत्र को नुक्सान होगा|”
NJAC के विरोध में न्यायपालिका की आज़ादी, न्यायपालिका में राजनेता का हस्तक्षेप और भ्रष्ट्राचार के बढ़ावा जैसे तर्क अपने आप में सही तो लगते है लेकिन सरकार और जनता द्वारा चुनी गई विधायिका का भी तो अपना कोई स्थान है, अगर न्यायपालिका ऐसे ही अपने आप को बचाने के नाम पर सुधारों को ख़ारिज करती रहेगी तो भी देश की लोकतंत्र के सामने एक बड़ा प्रश्न खड़ा हो जायेगा|
वरिष्ठ वकील राम. जेठमलानी और जस्टिस काटजू जैसे बड़े न्यायविदों द्वारा NJAC के विरोध में एक बड़ा मंच अपने तर्क दे रहा है तो दूसरी तरफ न्यायपालिका और न्याय व्यवस्था में अपना अहम् योगदान देने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज एस.एन.धींगरा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना करते हुए कहाँ की “इस फैसले से साफ़ दिखता है की जज अपने हाथ से ये अधिकार नहीं जाने देना चाहते, जो की लोकतंत्र के खिलाफ़ है” तो वहीँ एक वरिष्ठ वकील के.पी.एस.तुलसी के अनुसार “ये जो संतुलन बिगड़ गया है ये जो 99 संसोधन था इसने संतुलन बनाया था| ये लोकतंत्र के लिए सही नहीं है”
अब देखना ये है न्यायपालिका में सुधारों का ये मुद्दा कहाँ तक जाता है, क्या लोकतंत्र के लिए न्यायपालिका में जिन सुधारों की बात की जाती है वो संभव हो पाते है या फिर ये न्यायपालिका और विधायिका के बीच की आपसी टकराव हितों की लड़ाई में बदल जाती है|