पति−पत्नी के बीच पैदा हुए आपसी मतभेद एक हद से गुजर जाएं या अन्य किसी शारीरिक, मानसिक अथवा पारिवारिक समस्या के कारण स्थिति असहनीय हो उठे या फिर साथ रहना दूभर हो जाए तो अलग हो जाना बेहतर माना जाता है। लेकिन तलाक के बाद बच्चों का हक, उनका पालन−पोषण, उनकी जिम्मेदारी एक गंभीर समस्या बन जाती है। कौन उसकी देखभाल अच्छी तरह करेगा? यह विवाद का मुद्दा बन जाता है। कानून की दृष्टि से बच्चे की भलाई व उसका हित सर्वोपरि होता है। कानून इस बात पर गौर करते हुए ही फैसला करता है कि बच्चा माता या पिता में से किसके पास ज्यादा सुरक्षित है।
95 प्रतिशत मामलों में बच्चे की अभिरक्षा का भार मां को ही सौंपा जाता है। यहां तक कि वेश्यावृति से जुड़ी महिलाओं के लिए भी यह कानून समान रूप से लागू होता है। क्योंकि माना जाता है कि मां बच्चे की हर प्रकार से हजार गुना बेहतर देखभाल कर सकती है और बच्चा भी भावनात्मक रूप से मां के ज्यादा करीब होता है। 5 प्रतिशत मामलों में बच्चा पिता के अधिकार में सौंप दिया जाता है। ऐसे में बच्चे की रजामंदी सबसे बड़ा कारण होती है। हिंदू अधिनियम के अनुसार आठ वर्ष की उम्र के बाद लड़के को पिता के साथ रहने का विकल्प दिया जाता है। पिता चाहे या बेटा चाहे तो बच्चा पिता के पास जा सकता है। कोर्ट बच्चे की सुरक्षा व देखभाल को ध्यान में रखती है इसके लिए कभी−कभी जज भी बच्चे से बात करते हैं और उसकी इच्छा जानने की कोशिश करते हैं। उसके बाद ही पिता के साथ बच्चे को रहने की इजाजत दी जाती है। पुत्री के मामले में यह आयु सीमा 18 वर्ष है।
पुत्री को 18 वर्ष तक मां के पास ही रहना होता है, उसके बाद वह अपनी इच्छा से पिता के पास जा सकती है। मां यदि दूसरी शादी कर लेती है या फिर स्थिति ऐसी है कि वो बच्चे को नहीं रखना चाहती है तो बच्चे का अधिकार पिता को मिल जाता है। तलाक की वजह से सबसे ज्यादा बच्चा प्रभावित होता है। तलाकशुदा दम्पति के बच्चों में बहुधा साधारण स्थितयिां भी प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। उनका मानसिक विकास प्रभावित होता है, प्रतिरोध की भावना प्रबल हो उठती है। समाज की नजरों में वे स्वयं को अपराधी महसूस करने लगते हैं। उन्हें शर्म आती है कि मेरे माता−पिता ने ऐसा कदम उठाया। ऐसे मामलों में विशेषज्ञों की सलाह यही रहती है कि तलाक लेने से पहले बच्चे के भविष्य व उस पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव के बारे में गंभीरता से सोचें।
अपने अलग होने के कारण उन्हें सही रूप से समझाएं। दोनों पक्षों के वक्तव्यों में समानता होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि बच्चे को एक−दूसरे के प्रति कड़वाहट से भर दें। उसे ये आश्वासन दें कि हम पति−पत्नी अलग हो रहे हैं, किंतु तुम्हारे साथ आजीवन जुड़े रहेंगे। तुम्हारी जरूरतें तलाक के बाद भी हमारे लिए उतनी ही महत्वपूर्ण होंगी जितनी अब हैं। बेहतर हो तो बच्चे को बोर्डिंग स्कूल भेज दें और दोनों नियमित रूप से उससे मिलने जाते रहें। बच्चा जिस पक्ष के पास रहता है उसके विपरीत उसे दूसरे पक्ष की चाहत ज्यादा होती है इसको गलत नहीं समझना चाहिए और इसको लेकर बच्चे को डांटना नहीं चाहिए। अपने बचपन को ध्यान में रखकर ही अपने बच्चे के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए।