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पहले तपस्या, अब सुख-सुविधा का कल्पवास

प्रयागराज, संगम आने वाले बड़ी संख्या में कल्पवासी भौतिक सुख का त्याग नहीं कर पा रहे हैं। पहले कल्पवास में कल्पवासी तपस्या करते थे जबकि अब भौतिक सुख साधन के साथ कल्पवास करते हैं।

विष्णु संप्रदाय के छठे पीठाधीश्वर जगद्गुरु यमुनाचार्य महाराज ‘सतुआ बाबा’ मठ के सातवें महामंडलेश्वर संतोष दास के माघ मेला स्थित सतुआ बाबा के शिविर में गुजरात के सूरत की गीता बेन और पति गोविंद भाई पिछले 40 साल से कल्पवास करने आते हैं। गीता बेन ने कहा “इच्छाएं जब तक समाप्त नहीं होगी, तपस्या का अर्थ ही कहां रह जाएगा। तप प्रदर्शन का माध्यम नहीं है, वह तो कषाय मुक्ति और आत्मा शुद्धि का अभियान है।” वह पिछले 40 वर्षों से कल्पवास के नियमों और उसके वास्तविक तप का अनुसरण कर रही है।

वाराणसी के मणिकर्णिका घाट स्थित सतुआ बाबा आश्रम के पीठाधीश्वर रहे जगद्गुरु यमुनाचार्य जी महाराज ‘सतुआ बाबा’ से गीता बेन और उनके पति गोपाल जी भाई शादी के कुछ दिनों बाद ही दीक्षित हुए थे। उन्होंने बताया कि “बाबा” एक सिद्ध साधक थे। वह कड़ी साधना करते थे। वह जमीन पर विश्राम करते थे। बाद के दिनो में भोजन भी लेना बंद कर दिया था और यदाकदा फलहार करते थे। उन्होंने पैर तपती धूप हो कड़ाके की सर्दी पादुका का प्रयाेग कभी नहीं किया।

गीता बेन ने दु:खी मन से बात करते हुए बताया कि सतुआ बाबा वाराणसी से गुजरात में नर्मदा नदी के किनारे साधना के लिए आए थे। साधना के दौरान उनकी तबीयत खराब हो गयी तो साथ में मौजूद शिष्यों के आग्रह पर वह राजकोट निवासी अपने अनुयायी के यहां लौट आए। यहां उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। सन् 2012 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन 99 वर्ष की आयु में वह ब्रह्मलीन हो गये थे। उनके शव को गुजरात में पालीताना भावनगर सतुआ बाबा आश्रम लाया गया था। आश्रम में गुरू के शव के पास उनके जैसा जीवन जीने का संकल्प ले कर भौतिक सुख के साथ अन्न का त्याग कर दिया। गुरू के पदचिन्हों को आत्मसात करते हुए आजीवन उनके आदर्शों पर चलने का वचन लिया है। सतुआ बाबा के शव को वाराणसी मणिकर्णिका आश्रम लाया गया और यहीं मणिकर्णिका घाट के सामने गंगा की बीच धारा में जलसमाधि दी गयी।

गीता बेन (58) ने बताया कि कल्पवास बहुत ही कठिन तपस्या है। चालीस साल पहले तक कल्पवासी कल्पवास में काया जलाकर तपस्या करते थे लेकिन अब अधिकांश कल्पवासी भौतिक सुविधा का उपयोग कर कल्पवास करते हैं। काया जलाकर कल्पवास में तपस्या से प्रभु भक्ति में जो आनंद मिलता है वो आज के भौतिकसुख संसाधन में नहीं है। उन्होंने कहा कल्पवास में सुखो का त्यागकर परलोक का मार्ग प्रशस्त करता है। भौतिकसुख के साथ तपस्या नहीं हो सकती। इसे सुविधा संपन्न कल्पवास कह सकते हैं। उन्होंने बताया कि कल्पवास के दौरान बहुत कम कल्पवासी कल्पवास में काया जलाकर तपस्या करते हैं, जबकि अधिकांश सुख-सुविधा वाला कल्पवास कर रहे हैं।

उन्होंने बताया कि समाज में तपस्या का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। वर्तमान समय में बड़ी संख्या में कल्पवासियों के शिविर में भौतिक सुख-सुविधा के सामान उपलब्ध हैं। आजकल तपाराधना काफी बड़ी संख्या में अपवित्र मन (खोट मन) से किया जा रहा है। ऐसे कल्पवासियों के तप की आत्मा सत्यता से छिटक गई है।

उन्होंने बताया कि वह अन्न नहीं लेती, कभी फल का उपयोग करती हैं और सादा जल का सेवन करती हैं। उन्होंने बताया कि गुरू जी की कृपा से उन्हें ठंड़ नहीं लगती। वह भोर चार बजे ठंडे जल से बारहों मास स्नान करती है। सारा दिन भगवान के नाम का माला फेरती हैं। गुरू के वचनों का सत्यता से पालन करती हैं। वह गृहस्थ जीवन का त्यागकर गुजरात में नर्मदा तट के निकट “वड़िया तलाब आश्रम” में रहकर भगवान का भजन करती हैं और लोगों की सेवा करती हैं।