पितृऋण से मुक्ति का उत्सव है श्राद्ध

गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के अक्षय ज्योतिष संस्थान के ज्योतिषी और अक्षय पंचांग के संपादक पंडित रवि शंकर पांडेय ने शनिवार को कहा कि श्रद्धा से जो अर्पित किया जाए वही श्राद्ध है। भारतीय संस्कृति के विराट आकाशमंडल में श्राद्ध वह ज्योतिर्मय दीप है जो अतीत और वर्तमान को जोड़ता है, पितरों और वंशजों के बीच एक आध्यात्मिक सेतु का कार्य करता है।
पं़ पांडेय ने बातचीत में कहा कि मनुष्य की आत्मा केवल देह की क्षुद्र सीमाओं में बंधी नहीं होती वह अपने पूर्वजों से अदृश्य सूत्रों द्वारा जुड़ी रहती है। यही कारण है कि पितरों का स्मरण, उनका आशीर्वाद और उनके प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन भारतीय परंपरा में सर्वोच्च स्थान रखता है। श्राद्ध इसी भावना का मूर्त रूप है जो युगों से हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग बना हुआ है।
ज्योतिषी ने बताया कि पितरों का तर्पण और श्राद्ध पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करने का एक अति महत्वपूर्ण अनुष्ठान है, ऐसा करके पितरों की आत्मा को तृप्त करना उन्हें मोक्ष दिलाना और परिवार में समृद्धि, स्वास्थ्य, यश, सुख और कुल में वृद्धि का साधन माना जाता है। पितृ पक्ष के दौरान यह कार्य पितरों का तर्पण पिंड दान व श्राद्ध किया जाता है और इसके लिए पद्मपुराण में भी उल्लेख मिलता है, वैदिक ग्रंथों में श्राद्ध को पूर्वजों का आभार व्यक्त करने और परिवार के कल्याण का एक महत्वपूर्ण साधन बताया गया है।
उन्होंने बताया कि वेदों में यद्यपि .श्राद्ध. शब्द का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं तथापि .पितृयज्ञ. की संज्ञा से इसका स्वरूप मिलता है। ऋग्वेद के दशम मंडल में वर्णित पितृसूक्त मानवता की उस अनादि चेतना का उद्घोष है जिसमें पितरों का आह्वान कर उनसे आयु, बल और तेज प्राप्त करने की कामना की जाती है। उन्होंने कहा कि वैदिक ऋचाओं में कहा गया ..आयुर्ददतु पितरः, बलं ददतु पितरः, तेजो ददतु पितरः, स्वधा नमोऽस्तु वह यहां स्वधा का अर्थ ही है पितरों के लिए आहुतियां और अर्पण। वेदों की इस ऋचामाला से स्पष्ट होता है कि पितृदेवों का पूजन अनादि काल से मानव धर्म का अनिवार्य अंग रहा है। धीरे.धीरे जब यह परंपरा संगठित हुई तो इसे .श्राद्ध. कहा जाने लगा।
उन्होंने बताया कि महाकाव्यों में भी इस परंपरा का अमूल्य साक्ष्य मिलता है। वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों में ही यह प्रसंग आता है कि श्रीराम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध किया। यह केवल कर्मकांड न था बल्कि पुत्र धर्म का परिपूर्ण निर्वाह था। महाभारत के अनुशासन पर्व में अत्रि मुनि ने श्राद्ध की महत्ता का प्रतिपादन किया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में श्राद्ध के उद्गम की कथा आती है कि यह प्रथा भगवान विष्णु के वराह अवतार से प्रारंभ हुई। तीन पिण्डों में क्रमशः पिता, पितामह और प्रपितामह की उपस्थिति का दार्शनिक संकेत मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि श्राद्ध केवल व्यक्तिगत नहींए बल्कि वंशपरंपरा के तीन स्तरीय ऋण का स्मरण है।
उन्होंने बताया कि पुराणों में यह भी कथा आती है कि ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो अंशों से स्वयंभुव मनु और शतरूपा की सृष्टि की। इन्हीं से मानव समाज का विस्तार हुआ। मृत्युपरांत उन्हीं संतानों की स्मृति और उनके प्रति ऋणमुक्ति के लिए श्राद्ध परंपरा का सूत्रपात हुआ। यह केवल पितरों के प्रति श्रद्धा नहीं बल्कि यह मान्यता भी है कि जब तक पितृऋण से मुक्ति नहीं होती तब तक मानव जीवन की यात्रा अधूरी रहती है।




