रोहित वेमुले की आत्महत्या ने शैक्षणिक संस्थानों में दलित छात्रों के साथ शैक्षणिक संस्थाओं में हमेशा से होने वाले भेदभाव को उजागर किया है। क्योंकि यह कोइ नई घटना नही है। इस घटना से पहले आईआईटी मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध लगाने की घटना ने इस ओर सबका ध्यान खींचा था. देश के आईआईटी जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षक भर्ती को लेकर दलित और पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के साथ भेदभाव को लेकर आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे हैं. कुछ दिन पूर्व ही रूड़की इंजीनियरिंग कालेज मे 50 से अधिक छात्रों को फेल किये जाने की घटना सामने आायी। देश की राजधानी दिल्ली मे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भी दलित छात्रों ने भेदभाव की शिकायत की थी. साल 2010 में दिल्ली के वर्द्धमान मेडिकल कॉलेज में सामूहिक रूप से 35 दलित छात्रों के फेल होने का मामला जब तूल पकड़ा तो अनुसूचित जाति आयोग ने एक जांच कमेटी बनाई, जिसने भेदभाव के आरोपों को सही पाया था.
दलित छात्रों के साथ भेदभाव के यह मामले सिर्फ उच्च शिक्षण संस्थानों तक ही सीमित नहीं है. प्राइमरी स्कूलों में लागू दोपहर के भोजन की योजना में भी दलित रसोइये और दलित बच्चों के साथ भेदभाव की ख़बरें अक्सर सुर्खियां बनती रही हैं.
शैक्षणिक संस्थाओं में दलित छात्रों के साथ होने वाले भेदभाव को लेकर अब जरूरत है कि देश मे कोई मान्य और व्यापक अध्ययन हो। संविधान के अनुच्छेद 15, 38, 39 और 46 में जाति, धर्म, नस्ल, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव न किए जाने और एससी-एसटी के कमज़ोर तबकों को सुरक्षा मुहैया कराए जाने की बात कही गई है. इसके लिए क़ानूनी तौर पर प्रोटेक्शन ऑफ़ सिविल राइट्स एक्ट (1955) और एसएस/एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज़) एक्ट 1989 लागू है. एसएस/एसटी एक्ट के तहत आईपीसी के मुक़ाबले कड़ी सज़ाओं का प्रावधान है. इन क़ानूनों के तहत आने वाले मामलों की तेज़ सुनवाई के लिए कई राज्यों में विशेष अदालतें भी गठित की गई हैं.