नवरात्रों में माता की स्तुति, उपवास और मन व शरीर को नियंत्रित करके इच्छा शक्ति के अनुसार चलाना योग ही तो है। कुछ ऐसा अहसास डांडिया खेलते वक़्त भी होता है।
मां दुर्गाके सम्मान स्वरूप किए जाने वाले गरबा नृत्य से डांडिया उपजा, जो असल में महिषासुर और मां दुर्गा के युद्ध का प्रतीक है। डांडिए मां के अस्त्र के प्रतीक हैं। पर क्या आप जानते हैं कि यह बेजोड़ परम्परा एक तरह से योग है। आइए देखें कैसे…
डांडिया ध्यान है- जैसे ध्यान लगाने में हम एकाग्रचित्त होते हैं, वैसे ही इस नृत्य में ध्यान सिर्फ़ डांडिया पर ही होना ज़रूरी है।
साधना है- गोल घेरे में एक-दूसरे के डांडिए की ताल से क़दम मिलाते नर्तक लगातार चलते रहते हैं।
समभाव है- किसी का भी बंधन न मानने वाला डांडिया सभी को एक बनाता है। इसमें छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब, स्त्री-पुरुष किसी का भेदभाव नहीं।
संस्कृति से जोड़ता है- हमारी संस्कृति, पहनावा, रहन-सहन व मूल्य डांडिया में झलकते हैं।
इच्छा शक्ति का प्रतीक है- नौ दिन उपवास रखकर, शाम को मां की नृत्य आराधना करना ढृढ़ इच्छा शक्ति का ही तो परिचायक है।
मगन कर देता है- मनोदशा कैसी भी हो एक बार सुर-ताल से क़दम मिलाने पर मन मां की स्तुति में ही रम जाता है। मन की भावनाओं को नियंत्रित करके वर्तमान में रमना योग ही तो है।
उत्साह, उमंग, वीरता का प्रतीक है- जिस प्रकार मां ने दुष्टों का वध किया उसी प्रकार मनुष्य भी अपनी बुराइयों से लड़कर विजयी हो सकता है। डांडिया सही मायनों में सत्य की जीत प्रशस्त करता है।