प्रयागराज, अमृत से सिंचित और पितामह ब्रह्मदेव के यज्ञ से पवित्र पतित पावनी गंगा, श्यामल यमुना और अन्त: सलिला स्वरूप में प्रवाहित सरस्वती के संगम में माघी पूर्णिमा स्नान पर्व के साथ ही एक माह का संयम, अहिंसा, श्रद्धा एवं कायाशोधन का कल्पवास भी समाप्त हो गया।
माघ मेला बसाने वाले प्रयागवाल सभा के महामंत्री एवं तीर्थ पुराेहित राजेन्द्र पालीवाल ने बताया कि माघ मेले में कल्पवास के दो कालखंड होते हैं। मकर संक्रांति से माघ शुक्लपक्ष की संक्रांति तक बिहार और झारखंड के मैथिल ब्राह्मण कल्पवास करते हैं। दूसरे खण्ड पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक कल्पवास किया जाता है। माघ में कल्पवास ज्यादा पुण्यदायक माना जाता है। इसलिए 90 प्रतिशत से अधिक श्रद्धालु पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक कल्पवास करते हैं।
श्री पालीवाल ने बताया कि पुराणों और धर्मशास्त्रों में कल्पवास को आत्मशुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए जरूरी बताया गया है। यह मनुष्य के लिए आध्यात्म की राह का एक पड़ाव है, जिसके जरिए स्वनियंत्रण एवं आत्मशुद्धि का प्रयास किया जाता है। हर वर्ष श्रद्धालु एक महीने तक संगम के विस्तीर्ण रेती पर तंबुओं की आध्यात्मिक नगरी में रहकर अल्पाहार, तीन समय गंगा स्नान, ध्यान एवं दान करके कल्पवास करते है।
उन्हाेंने बताया कि संगम में कल्पवास शुरू करने से पहले कल्पवासी शिविर के मुहाने पर तुलसी और शालिग्राम की स्थापना कर पूजा करते हैं। कल्पवासी परिवार की समृद्धि के लिए अपने शिविर के बाहर जौ का बीज रोपित करता है। कल्पवास समाप्त होने पर तुलसी को गंगा में प्रवाहित कर देते हैं और शेष को अपने साथ ले जाते हैं। कल्पवासी शिविरों में स्नान के बाद हवन, पूजन और यज्ञ से पूरा वातावरण धार्मिक वातावरण और महक से गमक रहा है। इसके बाद सभी अपने अपने घरों को प्रस्थान शुरू कर दिए हैं।
कल्पवास के दौरान कल्पवासी को जमीन पर सोना होता है। इस दौरान फलाहार या एक समय निराहार रहने का प्रावधान होता है। कल्पवास करने वाले व्यक्ति को नियम पूर्वक तीन समय गंगा में स्नान और यथासंभव अपने शिविर में भजनण्कीर्तनए प्रवचन या गीता पाठ करना चाहिए।
मत्सयपुराण में लिखा है कि कल्पवास का अर्थ संगम तट पर निवास कर वेदाध्यन और ध्यान करना। कुम्भ में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। इस दौरान कल्पवास करने वाले को सदाचारी, शांत चित्त वाला और जितेन्द्रीय होना चाहिए। कल्पवासी को तट पर रहते हुए नित्यप्रति तप, हाेम और दान करना चाहिए।
निर्मोही अखाड़े के महामंडलेश्वर महंत संतोष दास उर्फ सतुआ बाबा के झूंसी स्थित शिविर में अपने पति के साथ कल्पवास करने वाली उमेन्द्री पाण्डे (65) ने बताया कि समय के साथ कल्पवास के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव भी आए हैं। बुजुर्गों के साथ कल्पवास में मदद करते-करते कई युवक एवं युवतियां माता-पिता, सास-ससुर को कल्पवास कराने और सेवा में लिप्त रहकर अनजाने में कल्पवास का पुण्य प्राप्त करते हैं।
उन्होंने बताया कि उनका कल्पवास पौष पूर्णिमा से शुरू होकर माघी पूर्णिमा के साथ संपन्न हुआ। इसी दौरान वह अस्वस्थ्य भी हो गयी लेकिन मां गंगा के आशीर्वाद से स्वस्थ्य लाभ भी प्राप्त किया। उन्हाेने बताया कि यहां रहकर जिस अनुभूति का अहसास हुआ है उसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। निश्चित रूप से यहां ऊर्जा का सतत प्रवाह बहता रहता है। देश-दुनिया से श्रद्धालु बिना बिना आमंत्रण और निमंत्रण पर एक निश्चित तिथि पर बिन बुलाए पहुंचते है, यही तो यहां की आध्यात्मिक शक्ति है।
श्रीमती पाण्डे का कहना है उन्होंने जब विदेशी सैलानियों को संगम में स्नान करते देखा तो उनके प्रति उनका विचार बदल गया। मान्यता है कि इस माह के दौरान किया गया व्रत, 100 साल तक बिना अन्न ग्रहण की गई तपस्या के समान होता है। कल्पवास से व्यक्ति के सभी तरह के कष्ट दूर होते हैं। यह एक ऐसी साधना है जिसको करना मुश्किल तो होता है लेकिन जो भी इसको पूरा करता है उसे अत्यंत शुभ फल मिलते हैं।
उन्होने बताया कि भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं वैचारिक विविधताओं को एकता के सूत्र में पिरोने वाला माघ मेला भारतीय संस्कृति का द्योतक है। इस मेले में पूरे भारत की संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। उन्हाेंने बताया कि शनिवार को माघी पूर्णिमा स्नान के साथ एक माह का कल्पवास समाप्त हुआ।