लखनऊ, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा समाजवादी पार्टी पर अपना वर्चस्व स्थापित करने और अखिलेश यादव का कांग्रेस के साथ गठबंधन तय होने के बाद राज्य की चुनावी तस्वीर पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा है। प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों भाजपा तथा बसपा को अपनी रणनीति में रद्दोबदल करनी पड़ सकती है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा और बसपा की निगाहें सपा में चल रहे अंदरूनी झगड़े पर टिकी थीं। परम्परागत रूप से मुसलमानों द्वारा समर्थित पार्टी मानी जाने वाली सपा में जारी कलह का फायदा उठाने की कोशिश कर रही बसपा, खुद को भाजपा को रोकने की क्षमता वाली एकमात्र शक्ति के रूप में पेश कर रही थी।
दूसरी ओर, भाजपा भी सपा में झगड़े की शक्ल बदलने के साथ-साथ अपनी रणनीति भी बदल रही थी। हालांकि उसका ज्यादातर जोर राज्य की कानून-व्यवस्था को खराब ठहराने और विकास का पहिया रुक जाने के आरोप लगाने पर ही रहा। हालांकि अब हालात बदल गये हैं। अब बसपा और भाजपा को अपनी रणनीति में जरूरी बदलाव करने पड़ सकते हैं।
बसपा ने तो इसकी शुरुआत भी कर दी है। उसके राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने सोमवार को लखनऊ में प्रमुख शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जवाद से मुलाकात की और कहा कि अगर प्रदेश में बसपा की सरकार बनेगी तो किसी के साथ नाइंसाफी नहीं होने दी जाएगी। सपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन की सुगबुगाहट तो पहले से ही थी, लेकिन सपा में चुनाव चिह्न और पार्टी पर कब्जे की लड़ाई काफी लम्बी खिंच जाने की वजह से कांग्रेस भी गठबंधन की सम्भावनाओं को लेकर पसोपेश में दिख रही थी। यही वजह थी कि वह आखिरी वक्त तक प्रदेश की सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कहती रही। विश्लेषकों के मुताबिक सपा और कांग्रेस मिलकर प्रदेश में खुद को भाजपा के खिलाफ एक धर्मनिरपेक्ष गठजोड़ के रूप में पेश करेंगे। उनकी कोशिश है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दबदबा रखने वाले राष्ट्रीय लोकदल को भी साथ ले लिया जाए। सपा का मानना है कि इससे मुस्लिम मतदाताओं को बसपा के पक्ष में गोलबंद होने से रोका जा सकेगा। यह जताने की कोशिश की जाएगी कि यह गठबंधन ही भाजपा को हरा सकता है। मुस्लिम मतदाताओं के रुख पर बारीक निगाह रखने वालों का मानना है कि यह कौम भाजपा को हराने की क्षमता रखने वाले दल या गठबंधन के पक्ष में मतदान करती है।
जानकारों का मानना है कि चुनाव आयोग में पार्टी पर नियंत्रण की लड़ाई जीतने के बाद अखिलेश निश्चित रूप से एक मजबूत नेता के तौर पर उभरे हैं। अगर अखिलेश, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और रालोद महासचिव जयन्त चौधरी जैसे युवा नेता एक मंच पर आकर जनसभाएं करेंगे तो इसका मतदाताओं के जेहन पर निश्चित रूप से असर पड़ेगा। मुस्लिम समुदाय आमतौर पर सपा का परम्परागत वोट बैंक माना जाता है। हालांकि सपा में जारी खींचतान के कारण उसकी इस पार्टी में आस्था डोलने की आशंका भी जाहिर की जा रही है। मुसलमानों का एकजुट वोट किसी भी सियासी समीकरण को बना और बिगाड़ सकता है। वर्ष 2012 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में मुसलमानों के लगभग एक पक्षीय मतदान की वजह से सपा को प्रचंड बहुमत मिला था। विधानसभा की 403 में से करीब 125 सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाने वाले मुसलमानों का वोट अगर विभाजित हुआ तो इसका सीधा फायदा भाजपा को होगा। यही वजह है कि मायावती ने मुसलमानों को सलाह देते हुए कहा था कि सपा दो टुकड़ों में बंट गयी है, लिहाजा मुसलमान उसे वोट देकर अपना मत बेकार ना करें।