सुलतानपुर, उत्तर-प्रदेश के सुलतानपुर जिले की ऐतिहासिक दुर्गापूजा अपनी अनूठी परम्पराओं के लिए प्रसिद्ध है। दो वर्ष कोरोना काल में मूर्तियां छोटे स्वरूप स्थापित हो रही थी। सरकार की बंदिशों के बीच इस वर्ष मूर्तियों को थोड़ा बड़ी करने के साथ विशाल पंडाल नही बनाये गए हैं,मगर झांकी की भव्यता में कोई कमी होते नही दिख रही हैं।
सुलतानपुर जिले की ऐतिहासिक दुर्गापूजा महोत्सव की व्यापकता के मामले में कलकत्ता के बाद देश में दूसरे स्थान का गौरव लिये सुलतानपुर कुछ मामले में विश्व में सबसे अलग है। शुरूआती दौर में एक समय था जब माॅं दुर्गा का विर्सजन कहारों के कंधो पर निकलता था। सुलतानपुर में वृहद स्तर पर होने वाले दुर्गापूजा महोत्सव का यह 63वां वर्ष है। प्रतिवर्ष पूजा समितियों की ओर से अपनी समितियों को और भी आकर्षक एवं मनोहारी स्वरूप प्रदान किया जाता हैै। 15अक्टूबर को विजयादशमी के साथ जहाँ देश भर में दुर्गापूजा सम्पन्न हो जाएगी। वहीं सुलतानपुर में दशहरा के साथ ही दुर्गापूजा महोत्सव अपने चरर्मोत्कर्श पर है जो 20 अक्टूबर पूर्णिमा के दिन विराट विसर्जन शोभायात्रा के साथ सम्पन्न होगा।
उल्लेखनीय है कि सुलतानपुर जिले में दुर्गापूजा की शुरूआत ठठेरी बाजार मेें वर्ष 1959 से भिखारी लाल सोनी के नेतृत्व में हुई थी। जिसमें दुर्गाभक्तों के एक दल ने श्रीदुर्गा माता पूजा समिति की स्थापना कराई गयी थी । जिसकी प्रतिस्पर्धा में रूहट्ठा गली में श्रीकाली माता पूजा समिति, लखनऊ नाका पर संतोषी माता पूजा समिति, पंचरास्ते पर कालीमाता पूजा समिति, ठठेरी बाजार में शीतला माता पूजा समिति व चौक में सरस्वती माता पूजा समिति की स्थापना हुई। उस समय मूर्तियोें के विसर्जन के लिए टै्रक्टरों आदि की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, जिससे माँ की प्रतिमाओं को कहारों के कंधों से ले जाया जाता था। इस विसर्जन शोभायात्रा में दुर्गा प्रतिमा को आठ से अट्ठारह कहार लगकर अपने कंधों पर रख शहर भ्रमण करते हुए गोमती नदी के सीताकुण्ड घाट तक ले जाते थे।
वर्ष 1972 के बाद से देवी माँ की प्रतिमाओं में उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन केन्द्रीय पूजा व्यवस्था समिति के अध्यक्ष राजेन्द्र सेठ उर्फ रज्जन सेठ को जाता हैै। जिन्होंने साईकिल से भ्रमण कर दुर्गाभक्तों को मूर्ति स्थापना के लिए प्रेरित किया। आज छह दशक पूरे होने के बाद शहर में अकेले करीब डेढ़ सौ प्रतिमाएं स्थापित हो रही हैैं। दुर्गापूजा महोत्सव में पूजा समितियों के बढ़ने के बाद सभी पर समान नियंत्रण रखने के लिए पहले सर्वदेवी पूजा समिति का गठन हुआ। बाद में जिसका नाम बदलकर केन्द्रीय पूजा व्यवस्था समिति हो गया। जो इस समय कार्य कर रही है। यह समिति पूरे महोत्सव में मुख्य भूमिका में होती हैं, प्रशासन सेकेंड्री बन कर सहयोग करता है। आज यह महापर्व के रूप में मनाया जाता हैै।