लखनऊ, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद यूपी की सियासत जाति और धर्म के ऊपर नहीं निकल पा रही है। बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने बीते दिनों एक बार फिर मुसलमानों से अपील की कि वह समाजवादी पार्टी के लिए मतदान कर अपना वोट बर्बाद नहीं करें और बसपा का समर्थन करें, ताकि भारतीय जनता पार्टी को हराया जा सके। मायावती की मुसलमानों से यह अपील इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि 403 विधानसभा सीटों में 73 सीटों पर 30 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। 38 जिलों और 27 संसदीय सीटों पर मुस्लिम वोटर की निर्णायक भूमिका है। वहीं दो सौ से ज्यादा विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतदाता 10 प्रतिशत से ज्यादा है।
इसी तरह 125 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम आबादी 20 प्रतिशत से ज्यादा है। यही वजह है कि मायावती दलित और मुस्लिम वोट बैंक को अपनी जीत के लिए सबसे बड़े आधार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती हैं। देखा जाए तो सपा और कांग्रेस में गठबन्धन के बाद मायावती थोड़ा असहज हो रही हैं। इन दोनों दलों के एक साथ नहीं आने पर उन्हें लग रहा था कि मुसलमान अलग-अलग जाने के बजाय बसपा को वोट देना ज्यादा पसन्द करेंगे, जिससे पार्टी बड़ी ताकत बनकर उभरेगी। इसी के मद्देनजर मायावती ने सपा के साथ गठबन्धन करने पर कांग्रेस को भी खूब कोसा है। दरअसल प्रदेश में 19.3 प्रतिशत मुसलमानों को रिझाने के लिए मायावती ने 97 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिए हैं। इसमें केवल पश्चिमी यूपी में ही पार्टी ने कुल 149 सीटों में से 50 सीटों पर मुसलमानों को टिकट दिया है। यहां तक कि अयोध्या से भी मुस्लिम प्रत्याशी (बज्मी सिद्दीकी) उतारा है। पार्टी की रणनीति है कि भाजपा पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाते हुए मुस्लिम वोटों को अपने पाले में किया जाए। इसके लिए वह पहले से ही तैयारी कर रही है। नसीमुद्दीन सिद्दीकी और उनके बेटे को मुसलमानों के बीच बसपा का प्रचार-प्रसार करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। वहीं अगर सपा की बात की जाए तो उसने अभी तक 63 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिए हैं। आगे की सूचियों में और मुस्लिम प्रत्याशियों को पार्टी टिकट देगी।
इससे पहले वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम बाहुल्य वाली 73 सीटों में से सपा ने 35 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि बसपा को 13 और कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं। वहीं भाजपा इन क्षेत्रों में 17 सीटें जीतने में सफल हुई थी। 2012 के विधानसभा चुनाव सपा के 43 मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे, जबकि बसपा के 16 और कांग्रेस के 4 जीते थे। खास बात है कि 2012 में पहली बार 63 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। कुल विधानसभा सीटों का करीब 17 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मुस्लिम विधायकों के पास था। ऐसा नहीं है कि मुस्लिम वोटों पर सिर्फ इन्हीं दलों की नजर है। दूसरी छोटी मुस्लिम पार्टियों ने भी 2012 में बड़ी सेंध लगाते हुए दो सीटें जीत ली थीं। इस बार भी वह इसी राह पर हैं। अससुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन मुसलमानों के साथ दलितों के गठजोड़ की कोशिश पर हैं। इस तरह वह सीधे तौर पर मायावती की रणनीति को चुनौती दे रहे हैं।
वहीं अगर भाजपा की बात करें तो उसे उम्मीद है कि सपा की अंदरूनी कलह के बाद मुस्लिम वोट बैंक सियासी दलों में आपस में बटेंगे। इसका फायदा उसे मिल सकता है। यही वजह है कि पार्टी ने पूरा फोकस अपने पारम्परिक सवर्ण वोट बैंक के अलावा ओबीसी पर भी किया है। सूबे में 25 प्रतिशत सवर्ण, 10 प्रतिशत यादव, 26 प्रतिशत ओबीसी और 21 प्रतिशत दलित हैं। भाजपा ओबीसी और अति पिछड़ों के सहारे अपनी सियासत का ताना-बाना बुन रही है। पार्टी ने रविवार को जारी 155 उम्मीदवारों की सूची में 39 अनुसचित जाति और लगभग 50 पिछड़ी जाति के प्रत्याशियों को टिकट दिया है। देखा जाए तो पार्टी लोकसभा चुनावों में जाटों का वोट भी हासिल करने में सफल हुई थी। उसे उम्मीद है कि राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) की कमजोर स्थिति के कारण जाट इस बार भी उसे समर्थन देंगे। इसलिए पार्टी टिकट वितरण में सबका साथ सबका विकास की राह पर है। कुर्मी, कुशवाहा, मौर्या, प्रजापति, केवट, लोध, बघेल और पाल जैसी पिछड़ी जातियों पर उसकी नजर है। अहम बात यह भी है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 08 प्रतिशत मुस्लिम वोट जीतने में सफल हुई थी। इसलिए अगर इस बार भी वह कुछ प्रतिशत मुस्लिम वोट हासिल करने में कामयाब हुई और मुस्लिम वोटों का विभिन्न दलां के बीच बंटवारा हुआ तो भाजपा का सत्ता से वनवास खत्म हो सकता है।