रोशनी का त्योहार भी नहीं भर पा रहा है कुम्हारों की जिंदगी में उजाला

सहारनपुर, प्रकाश का पर्व दीपावली एक हफ्ता दूर है और बाजारों में मिट्टी के दीयो के खरीददारों के इंतजार में कुम्हार दिन भर बैठ रहे हैं।
दीपावली में मिट्टी के दीपों से घर आंगन को रोशन करना भारत की प्राचीन परंपरा है और समाज का एक तबका सदियों से मिट्टी के दीये बनाने के काम को मन और लगन के साथ करता आ रहा है, लेकिन आधुनिकता के चमकते-दमकते समय में बाजार के तौर-तरीके बदल गए हैं और लोगों ने भी आधुनिक और बिजली के दीयों से दीपावली को पर्व को मनाना जरूरी मान लिया है। इससे मिट्टी के दीये बनाने की पारंपरिक कला पीछे छूट रही है।
जिले में 60 हजार कुम्हारों की आबादी में अब मुश्किल से आठ-दस हजार लोग ही ऐसे हैं जो अपने इस पारंपरिक पेशे के मोह को नहीं छोड़ पा रहे हैं। हालांकि उनकी नौजवान पीढ़ी ने इससे कभी का मुंह मोड़ लिया है। हो सकता है आने वाले कुछ सालों में हम दीपावली के दीये खरीदने को ही तरस जाएं। मंगल प्रजापति कहते हैं कि बिजली के दीये, प्लास्टिक के गमले और मशीन से बने बर्तनों के कारण इस समय में हमारी कला बहुत पीछे छूट रही है। कमेशो कहती है कि चिकनी मिट्टी मिलनी मुश्किल हो गई है। पहले यह मुफ्त में मिल जाया करती थी। अब हजारों रूपयों में एक ट्राली मिट्टी खरीदनी पड़ती है।
ओमप्रकाश ने बताया कि मिट्टी के बने सामान बनाने और पकाने की जगह कम पड़ गई है। हम अपने इस पारंपरिक व्यवसाय को मुश्किल से संभाले हुए हैं। राजेंद्र कुमार कहती है कि हमारे पारंपरिक दीयों की जगह चीन की रंग-बिरंगी सस्ती झालरों ने ले ली है। सतपाल बोले कि पहले हर दीया उनके घर की उम्मीद को रोशन करता था। अब कच्चे दीये बनाना, धूप में सुखाना और भट्टी में पकाना मुश्किल हो गया है।
शुभम प्रजापति ने कहा कि इस पारंपरिक कला को जिंदा रखने के लिए राज्य सरकार ने कुछ शुरूआत की है लेकिन अभी यह ना तो सभी लोगों को मिल पा रही है और जो मिल भी रही है वह अपर्याप्त है। नगर भाजपा विधायक राजीव गुंबर का कहना है कि योगी सरकार इस समाज के हालात को अच्छी तरह से समझती है और उन्हें काम शुरू करने के लिए कर्ज, प्रशिक्षण और जरूरी आधुनिक उपकरण दिए जा रहे हैं। सहारनपुर में पिछले हफ्ते ही इस पारंपरिक व्यवसाय से जुड़े काफी लोगों के लिए सरकार ने अपने हाथ आगे बढ़ाए थे। अमित कुमार का कहना है कि सरकारी योजनाओं की जानकारी नहीं होने के कारण उनके लोगों को योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।
हमारे कुम्हारों की पहचान उनकी उंगलियों की जादू से होती है। उनके हाथ मिट्टी को छूकर उसे जीवन देते हैं। कभी दीये का, कभी कुल्हड़ का, कभी बर्तन का। लेकिन यह स्थिति कब तक हमें सुकुन, आनंद देती रहेगी कहना मुश्किल है। तालाबों से मिट्टी निकालना, सुखाना, छन्नी से छानना, चाक पर चढ़ाने के लिए तैयार करना फिर उसे मनचाहा आकार देना। यह कुम्हारों की दिनचर्या का हिस्सा है।
दीपावली के आने से महीनों पहले तैयारियां शुरू हो जाती हैं। मेहनत से तैयार हर दीया उनके घर की उम्मीद और आशा प्रज्जवलित करता है पर यह दृश्य मंदिम पड़ता जा रहा है। हमारे बाजारों में सस्ते और आकर्षक दिखने वाले बिजली के दीयो और रंग-बिरंगी झालरों ने पारंपरिक मिट्टी के दीयों की जगह ले ली है। शायद यही वजह है कि दीपावली का पर्व बेहद करीब है और मिट्टी के दीयों के दुकानदार पूरे दिन ग्राहक के इंतजार में बैठे हैं। इंतजार में उनकी आंखों का पानी भी सूखता जा रहा है। कईयों ने इस व्यवसाय से निराश होकर रोजगार के दूसरे साधन ढूंढ़ लिए हैं। साफ है हमारी इस पारंपरिक, सांस्कृतिक धरोहर पर आधुनिकता के संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
यह कला हमसे कब छूट जाएगी, इसमें शायद ज्यादा वक्त ना लगे। यह समुदाय मिट्टी के बर्तन, खिलौने, दीये और अन्य सामान ही नहीं बनाता बल्कि यह भारतीय संस्कृति, आस्था और देहाती जीवन की आत्मा को आकार देता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की महात्मा गांधी की स्वदेशी की सीख पर भारतीयों को निष्ठापूर्वक अमल करना चाहिए तभी हमारे मेहनतकश हाथ का सम्मान जो मिट्टी से जीवन को आकार देता है वह बचा रह सकेगा। अब देखना होगा कि क्या हम अपनी संवेदनाएं दिखाकर इस दीपावली पर्व से इसकी शुरूआत करते हैं।