नई दिल्ली, आजकल ग्लैमर से भरपूर महिला पात्र के रूप में नागिन, तंत्र-मंत्र और काला टीका का पैकेज खूब टीआरपी बटोर रहा है और 21वीं सदी में विज्ञान के पथ पर बढ़ते बच्चों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने के साथ समाज को अंधविश्वास की ओर ढकेलने का काम कर रहा है। इन दिनों फिल्मों खास तौर पर टीवी धारावाहिकों में डायन, नाग-नागिन, काला जादू, प्राचीन कुरीतियों से जुड़ी घटनाओं को प्रचारित करने का जबर्दस्त चलन देखा जा रहा है। चैनलों पर ऐसे धारावाहिकों की बाढ़ के नकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं। टेलीविजन विज्ञान की देन है। तो टेलीविजन का मकसद विज्ञान के विभिन्न पहलुओं को नई पीढ़ी के समक्ष पेश करना होना चाहिए। लेकिन व्यवसायिकता और जैसे तैसे पैसा कमाने की होड़ में विज्ञान की इसी देन का इस्तेमाल एक तरह से अंधविश्वास फैलाने में किया जा रहा है। ऐसे अंधविश्वास फैलाने वाले टीवी धारावाहिकों को बंद किया जाना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता अशोक के सिंह ने सवाल किया कि क्या भारत का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत ऐसी किसी चीज की अनुमति देता है जो लोगों के मन मस्तिष्क को आघात पहुंचाने और समाज में वैज्ञानिक सोच के विकास को प्रभावित करे। ऐसा बिल्कुल नहीं है। उन्होंने कहा कि क्या टीवी धारावाहिकों, फिल्मों, विज्ञापनों एवं लेखों के माध्यम से सार्वजनिक तौर पर भूत प्रेत, तंत्र मंत्र, जादू टोना के सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति होनी चाहिए? सिनेमेटोग्राफी अधिनियम 1952 में ऐसी फिल्मों या सीरियल आदि की बोर्ड से जांच और प्रमाणन कराने की बात कही गई है। तब सवाल उठता है कि क्या कायदे कानूनों और मानकों का पालन किया जाता है? सिंह ने कहा कि ऐसे धारावाहिकों को बंद करने के साथ ही ऐसे प्रोडक्शन हाउस पर भारी जुर्माना लगाने जैसे सख्त कदम उठाये जाने की जरूरत है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की नातिन एवं सामाजिक कार्यकर्ता उषा ठाकुर ने कहा कि चैनलों की इस क्रांति के घोर नकारात्मक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। अश्लील कार्यक्रमों पर लचर बंदिश होने से बच्चे समय पूर्व ही परिपक्व हो रहे हैं। बच्चों की संस्कृति का स्तर तेजी से ढलान की ओर है उनकी शालीनता उद्ण्डता में बदल रही है। उन्होंने कहा कि पारिवारिक पृष्ठ भूमि के बने लम्बे सीरियलों में परिवार की कलह, अवैध संबंध, कुटिलता, षडयंत्रों के आधिक्य ने भारतीय परिवार को भी कहीं न कहीं प्रभावित कर रहा है। ठाकुर ने एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि धारावाहिकों का बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। एक घटना मुझे याद आ रही है जब एक बच्ची अपनी मां और बुआ को टीवी पर प्रसारित होने वाले एक धारावाहिक की मिसाल देते हुए समझा रही थी कि उस धारावाहिक में एक पात्र मेरी जितनी छोटी बच्ची है और उसका पति मर गया है, इसलिए वह सफेद साड़ी पहनती है और जलेबी नहीं खाती है। एक तरह से यह कुरीतियों को महिमामंडित करने का कार्य है। ठाकुर ने कहा कि आज के किरदार अपनी जिंदगी स्वयं चुनने के बजाय चोरी से संबंध बनाना ज्यादा पसंद कर रहे हैं।
धारावाहिकों में नए विज्ञान को खारिज कर पुराने अंधविश्वासों को संस्कृति का हिस्सा बना कर पेश कर रहे हैं। अंधविश्वास के खिलाफ आंदोलन करते हुए कुर्बानी देने वाले नरेंद्र दाभोलकर की किताब अंधविश्वास उन्मूलन (भाग एक) में कहा गया है कि पढ़े लिखे लोग चाहे वे वैज्ञानिक हो या डॉक्टर वे भी अंधविश्वास के शिकार हो जाते हैं। दूसरी ओर वैज्ञानिक बातों के संस्कार आज की शिक्षा में अथवा समाज में नजर नहीं आते और विज्ञान के विपरीत व्यवहार सामने आ रहा है। इसमें कहा गया है कि इससे अगर बचना है, तो एक व्यूह निर्माण करना होगा, अंधविश्वास के विरुद्ध जनजागरण का कार्य निःसंकोच निडरता से और प्रभावी ढंग से होना चाहिए. यह जागृति विज्ञान का प्रसार है. इस कार्य की कुछ सीमाएं भी होती हैं।