आज भागदौड़ की जि़दगी के मायने ही बदल गए हैं। व्यक्ति कष्ट दायक वस्तुओं में सुख तलाश कर रहा है जबकि सुखदायक आचरण को कष्ट कारक समझता है। इसलिए मनुष्य को न खाने की फुर्सत है और न ही जीवन में कुछ अच्छा करने की लालसा है। यदि मनुष्य की दिनचर्या पर ध्यान डाला जाए तो उससे यह नहीं लगता कि वह निरोग रह सकता है। आज व्यक्ति का लाइफ स्टाइल तनाव से ग्रसित मिलता है। मनुष्य के जीवन में सुबह से सायं तक टैंशन ही टैंशन रह गई है। टैंशन की इन घडियों में व्यक्ति अपने खानपान अर्थात् आहार पर ध्यान नही दे पाता। अनेक बार हम अॅाफिस में बैठे हुए, गाड़ी में चलते हुए, काम में व्यस्त रहते हुए तथा अन्य आवश्यक कार्यों की निवृत्ति के दौरान भी कुछ न कुछ खाकर अपनी क्षुधा मिटाने का प्रयास करते हैं। ऐसे समय पर व्यक्ति कोई पौष्टि क या स्वास्थ्यवर्धक खाना नहीं खा पाता बल्कि इनके सेवन से व्यक्ति कितना स्वस्थ रह सकता है यह तो हम सब जानते हैं। आहार व्यक्ति के जीवन का आधार स्तम्भ होता है। शुद्ध और रोगनाशक आहार द्वारा हम अपने शरीर से लम्बे समय तक कार्य ले सकते हैं।
शुद्ध आहार जहां व्यक्ति को संपूर्ण स्वस्थ्य प्रदान करता है वहीं दूषित खानपान व्यक्ति की प्रकृति को बिगाड़ देता है। यह भी कहा जा सकता है कि भगवान ने सभी प्राणियों का भोजन उनकी प्रकृति के आधार पर ही तय किया है। प्रकृति ने मांसाहारी जीव शेर, चीता व भेडिया जैसे प्राणियों का खानपान मांस तय किया है जबकि मनुष्य, गाय, भैंस, भेड़, बकरी जैसे जीव प्रकृति से ही शाकाहारी होते हैं। वे प्राणी जो मांसाहारी व शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन का भक्षण करतेे हैं, ऐसे सर्वाहारी जीवों की श्रेणी में कुत्ता, बिल्ली इत्यादि शामिल हैं। अब तो स्वयं व्यक्ति भी इस श्रेणी में कदम रख चुका है। खानपान पर ये सामाजिक अवधारणाएं तो सुनी ही होंगी कि जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन, जैसा पीओगे पानी, वैसी होगी वाणी। इससे पता चलता ही है कि हमारे खानपान अर्थात आहार का सीधा सम्बन्ध हमारे अन्तःकरण से होता है। आहार का प्रभाव मन पर, मन से बुद्धि, बुद्धि से विचार, विचारों से कर्म तथा कर्मों से मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास या विनाश होता है। अतः मनुष्य के विकास या विनाश को उसके द्वारा किये जाने वाला आहार से ही आंका जा सकता है। हमारा शरीर, आहार एवं विचारों का दर्पण होता है।
त्रयः उपष्ट म्भा आहार-निद्रा-ब्रह्म चर्यमिति। व्यक्ति का स्वास्थ्य आहार, निद्रा, और ब्रह्म चर्यतीन अंगों पर निर्भर करता है। ये तीनों अंग व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करने में रामबाण का कार्य करते हैं। शुद्ध, पवित्र, स्वास्थ्यवर्धक व रोगनाशक खानपान को आहारकी श्रेणी में गिना जाता है। स्वस्थ रहने का दूसरा साधन निद्राहै, गहरी नींद व्यक्ति को स्वस्थ रखने में सहायक होती है। इसमें मलिन, मल-मूत्रादि व गंदगी आदि के संसर्ग से उत्पन्न अंडा, मांस, शाक, फल, फूल, सब्जियां व औषध इत्यादि पदार्थों का सेवन करना निषिद्ध माना गया है। ऐसे पदार्थ व्यक्ति की बुद्धि का नाश करने वाले होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि आहार शुद्धौ, सत्व शुद्धि, सत्व शुद्धौ, ध्रूवास्मृति। अर्थात आहार के शुद्ध होने से बुद्धि का शोधन होता है और बुद्धि के शुद्ध होने से हमारी स्मरणशक्ति चीर स्थायी बन सकती है। वैद्यक शास्त्रों में बताए गए खानपान और शरीर की प्रकृति के अनुकूल आहार को वैद्यकशास्त्रोक्तआहार बताया गया है। वैद्यक शास्त्रों में भी तीन बातों का ध्यान रखने की आवश्यकता पर बल दिया है। इसमें ऋतभुक, मितभुक, हितभुकके सिद्धांत पर खानपान करना लाभकारी माना गया है।
भूख से कम खाना मितभुकतथा शरीर, बुद्धि और आत्मा की उन्नति के लिए हितकारी भोजन करना हितभुकआहार कहलाता है। वैसे देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार ही भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों का सेवन करता है। प्रकृति उसके शरीर व बुद्धि का सम्मिलन होता है। व्यक्ति को प्रकृति ही आहार का चयन के लिए प्रेरित करती है और उसे विभिन्न भक्ष्याभक्ष्य प्रदार्थों की ओर आकर्षित करती है। व्यक्ति के तीन शारीरिक दोष भी इस आर्कषण का कारण बनते हैं। वात, पित्त व कफनामक ये दोष शरीर में आरोग्यता के परिचायक हैं। इन दोषों के समावस्था में रहने पर शरीर निरोग रहता है, जबकि इनकी विषमता व्यक्ति को बीमारी का शिकार बना देती है। शरीर में वायु विकार से उत्पन्न दोष को वात दोषकहते है जबकि जठराग्नि में ऊष्णता व अग्नि तत्च की वृद्धि होना पित्त दोषको उत्पन्न करता है तथा खांसी, नजला और जुकाम की बढ़ोतरी कफ दोषकहलाता है। इन तीनों दोषों को समावस्था में लाने वाला आहार ग्रहण करना ही स्वस्थ रहने का मूलमन्त्र माना गया है।
शरीर के तीन दोषों की तरह ही बुद्धि में तीन गुण माने गए हैं। सत्व, रजो व तमो गुणों से विभूषित बुद्धि को अपने सद्गुणों के विकास के लिए सात्विक आहार का पान और दूषित खानपान का त्याग करना होता है। शुद्ध विचारों, वेदादि ज्ञान, सहयोगी मानसिकता और पवित्र आचारण से बुद्धि में सत्व गुणप्रभावी होता है जबकि सत्य, धर्म और सदाचार की उपेक्षा करना, ईष्या तथा दूसरों को नुकसान पहुंचाने के विचार तमो गुणके द्योतक है। कर्तव्य, जोश, रक्षा व नेतृत्व की भावना रजो गुणीकहलाती है। इनमें सत्व गुण को सर्वोपरि तथा तमो गुण को निकृष्ट माना गया है। इनमें गोदूध, घी, दही, लस्सी व मिष्ठ ानादि पदार्थ शामिल हैं। ये सत्व गुण को बढ़ाने वाले होते हैं। जो पदार्थ चोरी, हिंसा, विश्वासघात, छल, कपट इत्यादि से प्राप्त किए जाते हैं उन्हें अभक्ष्यपदार्थ कहा गया है। विपरीत प्रकृति व शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों को भी अभक्ष्य माना गया है। अंडा, मांस, मदिरा, जंक फूड इत्यादि भी अभक्ष्य पदार्थों की श्रेणी में आते हैं। ये तमो गुण वर्धक होते हैं।