बामनिया, 26 दिसंबर को समाजवादियों का मेला मध्यप्रदेश स्थित बामनिया मे लगेगा। इस दिन स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी चिंतक मामा बालेश्वर दयाल ‘मामाजी’की 19वीं पुण्यतिथि है।उनकी पुण्यतिथि पर प्रतिवर्ष हजारों अनुयायी समाधि पर श्रद्घाजंलि अर्पित करने आते हैं। उनकी ऐतिहासिक कुटिया, भील आश्रम पर भारी संख्या मे अनुयायी जमा होतें हैं।
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स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी चिंतक मामा बालेश्वर दयाल ‘मामाजी’ की 19वीं पुण्यतिथि पर फिर समाजवादियों को जमावड़ा लगेगा।मामाजी आदिवासी वर्ग के मसीहा रहे। उन्होंने आदिवासियों के लिए घरवालों को छोड़ दिया। जीवनभर समाज के उपेक्षित, गरीब वर्ग आदिवासियों के उत्थान के लिए न केवल संघर्ष बल्कि उनके बीच रहकर उन्हीं की तरह जीवन-यापन किया और अपने जीवन के अंतिम क्षण एक कुटिया में बिताए। यह कुटिया आज भी यह बताती है कि मामाजी ने अपनी कथनी-करनी में कोई अंतर नहीं किया।
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अनुयायियों को यहां आने के लिए किसी के बुलावे का इंतजार नहीं करना पड़ता और न ही किसी राजनीतिक नेता की घोषणा से उन्हें कोई सरोकार होता है। वे वाहनों से या बहुत से पैदल ही चले आते हैं। मामाजी के आशीर्वाद से देश की राजनीति के क्षितिज पर पहुंचे नेताओं ने भले ही उन्हे भुला दिया हो, पंरतु सच्चे देशभक्त के मन में आज भी उनके प्रति अगाध श्रद्घा है।
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यूपी से बामनिया आकर मामा बालेश्वर दयाल ने आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ी थी। 1937 में बामनिया में डूंगर विद्यापीठ भील आश्रम की स्थापना की थी। उस समय बामनिया होलकर राज्य जिला महिदपुर के अंतर्गत आता था। यहां बेगार प्रथा प्रचलित थी। मामाजी ने राजा को प्रभावित कर आदिवासियों को बेगार प्रथा से मुक्ति दिलाई।
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मामाजी ने बिड़ला से संपर्क कर बामनिया रेलवे स्टेशन के सामने टेकरी पर राम मंदिर बनवाया था। उन्होंने आदिवासियों से लंगोटी त्यागने का संकल्प लिया।जीवनभर समाज के उपेक्षित और गरीब आदिवासियों के बीच रहकर उन्हीं की तरह जीवन-यापन किया।
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राज्यसभा के पूर्व सांसद होने के बावजूद कभी बड़े अस्पतालों में इलाज नहीं कराया। बामनिया में ही इलाज कराते रहे। अंतिम समय में सरकार ने जबरन उन्हें रतलाम इलाज के लिए भेजा, लेकिन वो ज्यादा दिन यहां नहीं रुके और आखिरी सांस बामनिया में अपनी कुटिया में ही ली।समाजवादी चिंतक मामा बालेश्वर दयाल ने जीवनभर समाज के उपेक्षित और गरीब आदिवासियों के बीच रहकर उन्हीं की तरह जीवन-यापन किया।