नई दिल्ली, देश मे कोरोना संक्रमण के कारण लगाये गये लाकडाउन के डेढ़ महीने से अधिक बीत जाने के बाद भी देश के ज्यादातर प्रवासी मजदूरों की स्थिति जस की तस है।
देश के करोड़ों प्रवासी मजदूर पहले लॉकडाउन की शुरूआत से ही परेशान हैx। उनकी हालत दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। दिहाड़ी मजदूरों का तो काम बंद है है। वहीं, मासिक वेतन पर काम करने वाले लाखों मजदूरों को भी मार्च की पूरी तनख्वाह नहीं दी गई। अप्रैल का वेतन मिलने की तो कोई उम्मीद ही नहीं है, क्योंकि काम ही नही हुआ। ऐसे में मजदूर किसी तरह अपने गाँव वापस लौटना चाह रहे हैं, लेकिन लाॅकडाउन के डेढ़ महीने से अधिक बीत जाने के बाद भी इनको कोई साधन नहीं मिल रहा है।
कोई साधन नहीं देख लाखों की संख्या में मजदूर पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर घर पहुंच रहे हैं। दूरी बहुत है, चप्पल घिस गई तो पैर में बांध पानी की बोतल ली है। मजदूर बेइंतहा दर्द झेलकर घर जा रहे हैं। इस क्रम में करीब दो दर्जन मजदूरों की जान भी जा चुकी है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 मजदूर मालगाड़ी की चपेट में आकर जान गंवा बैठे। मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में एक ट्रक के पलट जाने से उसमें सवार 5 मजदूरों की मौत हो गई। कई मजदूर चलते-चलते रास्ते में ही दम तोड़ चुके हैं।
मजदूरों का दर्द जब मीडिया और सोशल मीडिया के जरिये लगातार दुनिया के सामने आने लगा तब नेताओं की बयानबाजी भी तेज हो गई और अंततः उनके लिए विशेष श्रमिक ट्रेन चलाने की भी घोषणा हुई। लेकिन, इस पर भी राजनीति होती रही। जाने वाले मजदूरों की संख्या लाखों में है, लेकिन ट्रेनें दर्जनों में ही चल रही हैं।
लौटने के इच्छुक मजदूर ऑनलाइन अपना नाम पंजीकृत कराएंगे। सरकार यह लिस्ट रेलवे को देगी और इसी के आधार पर रेलवे ट्रेन चलाएगा। एक ट्रेन में 1000-1200 यात्री बैठेंगे और करीब 90 फीसदी सीट भरने पर ही ट्रेन चलेगी। किराया 85 फीसदी केंद्र सरकार और 15 प्रतिशत राज्य सरकार (जहां का मजदूर है) देगी। इसे लेकर भी कई राज्य सरकारों के द्वारा अलग-अलग तरह की राजनीति देखने को मिली।
सरकार द्वारा घर लौटने के इच्छुक प्रवासी मजदूरों के रजिस्ट्रेशन के लिए जो लिंक दिया गया है, वह खुल ही नहीं रहा है। जबकि, विदेश में फंसे जो दिल्लीवासी भारत लौटना चाह रहे हैं, उनके रजिस्ट्रेशन के लिए जो लिंक दिया गया है, वह सही काम कर रहा है।
ट्रेनों की कम संख्या, रजिस्ट्रेशन की मुश्किलें और राशन-पानी का अभाव, पैसे खत्म हो जाना जैसी समस्याओं के चलते लाखों की तादाद में मजदूर अभी भी पैदल घर वापसी के लिए मजबूर हैं। चिलचिलाती धूप में तपती सड़क पर, आंधी बारिश मे भूखे-प्यासे मजदूरों को जब पुलिस पकड़ने और भागने लगी तब वे रेल पटरियों के रास्ते पैदल चलने लगे। अब पुलिस उन्हें वहाँ भी रोक रही, लेकिन सरकार अभी भी उनका दुख-दर्द दूर करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रही है।
सवाल यह है कि अंतर्राज्यीय मजदूरों के बारे में कोई दिशा-निर्देश क्यों नहीं? इसमें राज्य की सीमा क्यों महत्वपूर्ण है? छोटे-छोटे राज्यों या अंतर-प्रादेशिक सीमाओं पर ‘फंसे’ मजदूरों पर राज्य की सीमा की बंदिश का क्या मतलब है? और यह सवाल भी कि छोटे राज्यों या अंतर-प्रादेशिक सीमाओं पर रुके मजदूरों को लौटने में मदद क्यों नहीं की जा सकती?
हकीकत ये है कि कोरोना संकट के इस दौर में सरकार का गरीब और मजदूर विरोधी चेहरा उजागर हो गया है। लॉकडाउन के बहाने जहां सरकार एक ओर श्रमिकों के अधिकारों को कुचलने की तैयारी कर रही है, वहीं दूसरी ओर सरकारों की रूचि मजदूरों की घर वापसी में बिलकुल नहीं है। वह बस खानापूर्ति कर रही है।
हां अगर मजदूर स्वयं गिरते-पड़ते सारे प्रतिबंधों के बावजूद अपने घर पहुंच जाएं तो ये उनका भाग्य है और इसके जो खतरे हैं वे उसे खुद झेलनें हैं। हां, सरकार की रूचि उनको काम में लगाने की जरूर दिखती है। क्योंकि इसमें कॉर्पोरेट जगत की रूचि निहित है।