मथुरा, तीन लोक से न्यारी मथुरा नगरी में जितने जोश खरोश से होली, जन्माष्टमी जैसे अन्य त्योहार मनाए जाते हैं, उतने ही जोश से कंस मेले का आयोजन किया जाता है। इस साल कंस मेला 3 नवंबर को है। यह मेला दुनिया भर में रहने वाले चतुर्वेदियों का समागम बन जाता है।
ब्रजभूमि की सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्य रखने वाले शंकरलाल चतुर्वेदी ने बताया कि कृष्ण बल्देव द्वारा कंस को अधमरा करने के बाद छज्जू चौबे तथा अन्य ग्वाल बालों ने कंस का पूरी तरह से बध किया था। उधर माथुर चतुर्वेद परिषद के संरक्षक महेश पाठक इस मेले को चतुर्वेद समाज की शौर्य गाथा से जोड़ते हैं। उन्होंने बताया कि ऐसे समय में जबकि आतताई कंस के सामने कोई खड़ा नही हो सकता था। चतुर्वेद समाज के लोग न केवल कृष्ण के साथ खुलकर आए बल्कि उन्होंने कंस के वध करने की युक्ति भी बताई थी।
उन्होंने गर्ग संहिता के गोलोक खण्ड के 9वें अध्याय का जिक्र करते हुए बताया कि कंस अपनी बहन देवकी के आठवें पुत्र के हाथों उसका वध होने की आकाशवाणी से विचलित हो गया था। इसके बाद कृष्ण को मारने के लिए कंस ने कई राक्षसों को भेजा और उनके असफल होने पर मल्ल क्रीड़ा महोत्सव अथवा धानुष महोत्सव का आयोजन किया था। राक्षसों को कृष्ण और बलराम को मारने के लिए लगा दिया था।
उन्होंने बताया कि कृष्ण ने वास्तव मेें कंस को अधमरा कर दिया था, किंतु उन्होंने हत्या का पाप लगने से बचने एवं राधारानी द्वारा इसे अन्यथा लेने के कारण स्वयं कंस की हत्या नहीं की थी। क्योंकि, अरिष्टासुर राक्षस के वध के बाद राधारानी ने कृष्ण को निज महल में प्रवेश नही दिया था और कहा था कि उन्होंने गोवंश की हत्या की है। इसलिए पापमुक्ति के लिए उनका सात तीर्थों में स्नान करना आवश्यक है। इसके बाद श्रीकृष्ण ने श्यामकुण्ड को प्रकट कर उसमें सभी तीर्थो के जल का आह्वान कर उसमें स्नान किया था। तभी उन्हें राधारानी के निज महल में प्रवेश मिला था।
माथुर चतुर्वेद परिषद के महामंत्री राकेश तिवारी ने बताया कि जब उक्त महोत्सव में भाग लेने के लिए कृष्ण बलराम आ रहे थे तो उन्हें धोबी मिला। दोनेा भाइयों ने उसे मारकर उसके कपड़ों से अपनी नाप के कपड़े दर्जी से सिलवा लिए । इसके बाद उन्होंने चाड़ूर, मुष्टिक जैसे पहलवानों एवं कुबलिया पीड़ हाथी का वध किया था। उन्होंने यह भी बताया कि कंस के दरबार में छज्जू नामक चैबे रहा करते थे तथा उन्होंने ही कंस को मारने की तरकीब दोनो भाइयों को बताई थी। इस मेले के लिए लाठी की तैयारी एक महीने पहले उस पर मेंहदी और तेल लगाकर की जाती है।
तिवारी ने बताया कि कंस मेले के दिन चतुर्वेद समाज के लोग गिरधरवाली बगीची से कंस के पुतले को लाठियों में टांगकर कंस टीले तक जोश के साथ जाते है। उधर किसी सजी हुई गाड़ी में बैठकर कृष्ण बलराम के स्वरूप टीले के पास आते हैं। पहले वे हाथी पर बैठकर आते थे किंतु हाथी के प्रयोग पर प्रतिबंध लगने के बाद वे हाथी पर बैठकर नहीं आते हैं तथा कृष्ण के इशारा मिलते ही वे कंस का बंध कर देते हैं। चतुर्वेद समाज कंस के पुतले की पिटाई कर बहुत खुश होते हैं तथा बाद में कंस के सिर को लेकर वापस गाते हुए आते हैं।
उन्होने बताया कि इसके बाद कंस की हत्या से मुक्ति के लिए चतुर्वेद समाज के लोग तीन वन यानी मथुरा, गरूड़गोविन्द और वृन्दावन की लगभग 56 किलोमीटर लम्बी परिक्रमा करते है। इसके साथ ही कंस मेले का समापन होता है। अपने को यमुना पुत्र कहने वाले चतुर्वेदी समाज का यह प्रमुख मेला कई मायनों में निराला होता है। एक ओर यह मेला विश्व स्तर पर चतुर्वेद समाज का समागम मेला है दूसरी ओर इस मेले के आयोजन के माध्यम से विश्व के कोने कोने में रहनेवाली नई पीढ़ी को संस्कारित किया जाता है। इस मेले में केवल मथुरा के ही चतुर्वेदी भाग नही लेते है बल्कि देश और विदेश से चतुर्वेद समाज के लोग भाग लेकर गौरवान्वित होते हैं।