इटावा,दशकों तक दस्यु गिरोह की शरणस्थली रही चंबल घाटी में दुर्दांत डकैतों ने भी अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया था।
चंबल संग्रहालय के संस्थापक डॉ.शाह आलम राना ने यूनीवार्ता से बातचीत में कहा कि आजादी के आंदोलन में चंबल घाटी के कुख्यात बागियों (डाकुओं) ने खासा योगदान दिया है, इस बात का जिक्र आजादी के बाद प्रकाशित हुई विभिन्न पुस्तकों में विस्तृत उल्लेखित किया गया है।
उनका कहना है कि शौर्य,पराक्रम और स्वाभिमान की प्रतीक चंबल घाटी के डाकुओ के आंतक ने भले ही हमारे देश की कई सरकारो को हिलाया हो लेकिन यह बहुत ही कम लोग जानते है कि चंबल के डाकुओ ने अग्रेंजी हुकूमत के दौरान आजादी के दीवानो की तरह अपनी देशप्रेमी छवि से देशवासियो के दिलो मे ऐसी जगह बनाई कि हम उन्हे स्वतंत्रता दिवस के दिन याद किये बिना रह नही पाते है।
आज़ादी पूर्व चंबल में बसने वाले डाकू,जिन्हें पिंडारी कहा जाता था। डाकुओ ने देश के क्रांतिकारियों को न केवल असलहा व गोला बारूद मुहैया कराया बल्कि उनको छिपने का स्थान भी दिया। चंबल के बीहड़ों में आजादी की जंग 1909 से शुरू हुई थी। चंबल में रहने वालों ने क्रांतिकारियों का भरपूर साथ दिया। बीहड़ क्रांतिकारियों के छिपने का सुरक्षित ठिकाना हुआ करता था।
चंबल के डकैतों को बागी कहलाना ही पसंद है।आजादी के बाद बीहड़ में जुर्म होने लगे, जो उनकी मजबूरी थी। बीहड में बसे डकैतों के पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर क्रान्तिकारियों का साथ दिया लेकिन आजादी के बाद उन्हें कुछ नहीं मिला। राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में चंबल के किनारे 450 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में बागी आजादी से पहले रहा करते थे। उन्हें पिंडारी कहा जाता था।
पिंडारी मुगलकालीन जमींदारों के पाले हुए वफादार सिपाही हुआ करते थे,जिनका इस्तेमाल जमींदार विवाद को निबटाने के लिए किया करते थे। मुगलकाल की समाप्ति के बाद अंग्रेजी शासन में चंबल के किनारे रहने वाले इन्हीं पिंडारियों ने जीवन यापन के वहीं डकैती डालना शुर कर दिया और बचने के लिए अपनाया चंबल की वादियों का रास्ता।