आतंक के कारखाने के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई की घड़ी

लखनऊ, जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हालिया नरसंहार ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि आतंकवाद भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है। इस घटना के बाद भारतीय सुरक्षा बलों ने जिस तेजी और सख्ती से कार्रवाई की है, वह एक नई रणनीतिक सोच को दर्शाता है — आतंकवाद के स्थायी ढांचे को निशाना बनाना।
अब तक लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े पाँच आतंकियों के आवासों को ध्वस्त किया गया है। इससे एक स्पष्ट संदेश गया है कि आतंकियों को केवल मार गिराना पर्याप्त नहीं है; उनके सामाजिक-आर्थिक आधार को भी तोड़ना जरूरी है। बारामूला में एक आतंकवादी को मार गिराया गया है और दो अन्य आतंकवादी सुरक्षा बलों के घेरे में हैं।
भारतीय वायुसेना द्वारा एलओसी के निकट युद्धाभ्यास, और सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी द्वारा श्रीनगर और ऊधमपुर में उच्चस्तरीय सैन्य बैठकों में भागीदारी, इस बदली हुई रणनीति के संकेतक हैं। अब भारत केवल प्रतिकार नहीं कर रहा है, बल्कि भविष्य के खतरों को प्रीएम्प्टिव स्ट्राइक के ज़रिये रोकने की नीति अपना रहा है।
पाकिस्तान की भूमिका एक बार फिर कटघरे में है। हाल ही में पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ द्वारा अंतरराष्ट्रीय मीडिया में किया गया स्वीकारोक्ति — कि पाकिस्तान तीन दशकों से आतंकवाद को साधन के रूप में प्रयोग कर रहा है — इस पड़ोसी देश की नीति का खुला प्रमाण है। इसके अतिरिक्त, पाकिस्तान सरकार द्वारा भारत को आतंकियों के जरिये ‘सीधी कार्रवाई’ की धमकी देना, यह सिद्ध करता है कि पाकिस्तान न केवल आतंकवाद को समर्थन देता है, बल्कि उसे अपनी रणनीतिक नीति का औपचारिक हिस्सा भी मानता है।
इस परिप्रेक्ष्य में भारत के समक्ष तीन मुख्य विकल्प उभरते हैं:
1. आंतरिक सफाई अभियान को गहरा करना —
जम्मू-कश्मीर में आतंक के नेटवर्क को जड़ से समाप्त करने के लिए सुरक्षा अभियानों को और आक्रामक बनाया जाए, साथ ही स्थानीय समर्थन तंत्र को ध्वस्त किया जाए।
2. कूटनीतिक दबाव को वैश्विक स्तर पर बढ़ाना —
पाकिस्तान को वैश्विक मंचों पर बेनकाब कर, उसे ‘आतंकी प्रायोजक राज्य’ घोषित कराने के प्रयासों को तेज किया जाए। FATF जैसी संस्थाओं पर लगातार दबाव बनाया जाए।
3. सीमापार सक्रिय प्रतिरोध नीति —
भारत को अपनी “हॉट परसूट” रणनीति के सिद्धांतों को औपचारिक रूप से विस्तार देना चाहिए, जिससे आतंकवादियों के ठिकानों को आवश्यकता पड़ने पर सीमापार जाकर भी निष्क्रिय किया जा सके। यह रणनीति केवल सैन्य कार्रवाई नहीं, बल्कि एक दीर्घकालिक नीतिगत दृष्टिकोण का हिस्सा होनी चाहिए।
भारत अब उस दौर में प्रवेश कर चुका है जहाँ ‘सावधानी’ का स्थान ‘निर्णयात्मकता’ ने ले लिया है। शांति केवल तब संभव है जब आतंकवाद के स्रोतों पर निर्णायक चोट की जाए — और यह कार्य केवल कश्मीर में नहीं, बल्कि उन सीमाओं के पार भी करना होगा जहाँ से आतंक को पोषित किया जाता है।
युद्ध कोई वांछनीय विकल्प नहीं है, परन्तु यदि अस्तित्व की रक्षा के लिए विकल्प सीमित रह जाएँ, तो कार्रवाई में देर करना राष्ट्रहित के विरुद्ध होगा। भारत को चाहिए कि वह अपने सैन्य, कूटनीतिक और आर्थिक साधनों का समन्वय कर एक दीर्घकालिक रणनीति बनाए — न केवल आतंकवाद को कुचलने के लिए, बल्कि आतंकवाद के स्थायी स्रोतों को समाप्त करने के लिए भी।
अब वक्त है कि भारत आतंकवाद को ‘घटना’ नहीं, बल्कि ‘रणनीतिक चुनौती’ के रूप में देखे — और उसी के अनुरूप अपनी नीति संचालित करे।
(शाश्वत तिवारी)
(लेखक परिचय: शाश्वत तिवारी स्वतंत्र पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषक हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा, नीति और राजनीतिक परिदृश्य पर उनकी विशेष पकड़ है।