बांदा, उत्तर प्रदेश में बांदा जिले की यादव बाहुल्य बबेरू सीट में इस बार के चुनाव में एक बार फिर ‘दलित-यादव’ का मजबूत गठजोड़ बन सकता है और यहां सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा पर बसपा का दांव भारी पड़ सकता है। इसी मजबूत गठजोड़ के चलते साठ से नब्बे के दशक तक यहां वामपंथ का जलवा था।
सबसे पहले अब तक हुए विधानसभा चुनाव में नजर डालें तो 1951 और 1957 के चुनाव में कांग्रेस से रामसनेही भारती (कुर्मी) जीते और 1962 व 1967 में कांग्रेस के ही देशराज सिंह (कुर्मी) विधायक बनें। 1966 के बाद यहां ‘दलित-यादव’ गठजोड़ उभरा और वामपंथ की जड़े काफी मजबूत हो गईं। 1969 के चुनाव में सीपीआई के दुर्जन भाई (दलित) पहली बार विधायक बनें। 1974 व 1977 के चुनाव में इसी दल के देवकुमार यादव विधायक बनें, लेकिन 1980 में कांग्रेस का समय बहुरा और रामेश्वर भाई (लोहार) विधायक चुने गए। इसके बाद वामपंथ आन्दोलन ने फिर पल्टी मारी और सीपीआई के देवकुमार यादव 1985 के चुनाव में तीसरी बार जीत गए, 1989 में देवकुमार ने सीपीआई छोड़ कर संयुक्त कम्युनिष्ट पार्टी (डांगे गुट-निर्दल) से कांग्रेस के समर्थन पर चुनाव लड़ा और जीते भी। इस चुनाव के बाद ही यहां बसपा मजबूती से उभरी और 1991 व 1993 के चुनाव में गयाचरण दिनकर (अब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और नरैनी सीट से बसपा उम्मीदवार) ‘दलित-यादव’ गठजोड़ की बदौलत चुनाव जीते। भाजपा यहां 1996 में पहली बार चुनाव जीती, भाजपा के शिवशंकर सिंह पटेल ने बसपा के गयाचरण दिनकर को हराया था। 2002 के चुनाव में बसपा के गयाचरण दिनकर फिर अपनी सीट भाजपा से छीनने में कामयाब रहे, लेकिन बसपा के इस गढ़ में 2007 में कुछ दलित जातियां सपा के पाले में चली गईं, जिससे सपा के विश्वंभर सिंह यादव 2007 और 2012 का चुनाव जीते।
इस प्रकार 61 साल में हुए 15 विधानसभा चुनावों में बबेरू सीट में कांग्रेस से चार, कांग्रेस समर्थित निर्दल एक, सीपीआई से तीन, बसपा से तीन, भाजपा से एक और सपा से दो विधायक निर्वाचित हो चुके हैं। सीपीआई और बसपा को तीन-तीन बार जिताने में यहां ‘दलित-यादव’ गठजोड़ की अहम भूमिका रही है।
इस समय बबेरू सीट में कुल मतदाताओं की संख्या 3,27,176 है, जिनमें 1,46,456 महिलाएं और 1,80,701 पुरुष मतदाता पंजीकृत है। एक अनुमान के अनुसार, यहां दलित मतदाता 52 हजार, ब्राह्मण 19 हजार, कुशवाहा 17 हजार, मुस्लिम 22 हजार, वैश्य 9,500, यादव 61 हजार, क्षत्रिय 16 हजार, लोधी 7,500, कायस्थ तीन हजार, कुम्हार 12 हजार के आस-पास और शेष अन्य कौम के मतदाता हैं।
2012 के चुनाव में सपा के विश्वंभर सिंह यादव 41,584 मत पाकर बसपा के ब्रजमोहन कुशवाहा को हराया था, ब्रजमोहन को 40,433 मत मिले थे। कांग्रेस के शिवशंकर सिंह को 33,017 और भाजपा के अजय कुमार पटेल को 27,943 मत मिले थे। इस बार बबेरू सीट में बसपा ने सीपीई से तीन और एक बार निर्दल (कुल चार बार) विधायक रहे स्व. देवकुमार यादव की बहू किरण यादव को मैदान में उतारा है तो सपा-कांग्रेस गठबंधन से निवर्तमान विधायक विश्वंभर सिंह यादव और भारतीय जनता पार्टी से नया चेहरा चंद्रपाल कुशवाहा उम्मीदवार बनाए गए हैं। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने अबकी बार के चुनाव में वामपंथ के समय के गठजोड़ पर ध्यान केन्द्रित किया है और जाखी गांव के रहने वाले इस सीट से चार बार विधायक रह चुके का. देवकुमार यादव की बहू किरण यादव पर दांव लगाया है। हालांकि सपा-कांग्रेस गठबंधन से निवर्तमान विधायक विश्वंभर सिंह यादव तीसरी बार भी ‘साईकिल’ पर सवार हैं, लेकिन उनकी राह में बसपा ने ‘डायमंड कट डायमंड’ का फाॅर्मूला अपना कर कांटें बिछा दिया है।
जानकार सूत्रों का कहना है कि 2007 के चुनाव में मायावती सरकार में पूर्व मंत्री रहे बाबू सिंह कुशवाहा ने बसपा के अधिकृत उम्मीदवार के विरोध में सपा के विश्वंभर सिंह यादव की अंदरूनी मदद की थी और अनुसूचित जाति के अंतर्गत आने वाली कोरी कौम का एकमुश्त मत भी सपा के पक्ष में गया था। तब विश्वंभर 2007 के चुनाव में बसपा उम्मीदवार गयाचरण दिनकर से सिर्फ 167 (एक सौ सरसठ) मत से चुनाव जीत पाए थे और 2012 के चुनाव में वह 1,151 मतों से बसपा के ब्रजमोहन को हरा पाए थे। इस चुनाव में जहां बाबू सिंह अपने संगठन ‘जन अधिकार मंच’ से उम्मीदवार उतार रहे हैं और दो चुनावों में सपा का साथ देने वाली कोरी बिरादरी उपेक्षा का आरोप मढ़ सपा से अलग हो रही है, वहीं इस क्षेत्र के यादव मतदाताओं में देवकुमार यादव की एकतरफा पकड़ रही है, यही मानकर बसपा ने उनकी बहू को मैदान में उतारा है।
बसपा को उम्मीद है कि एक बार फिर दलित और यादव गठजोड़ कामयाब होगा। सपा की कमजोरी का एक पहलू यह भी है कि सामाजिक कार्यकर्ता प्रमोद आजाद (यादव) ने जब भी किसानों की समस्याएं उठाने प्रयास किया है, आरोप है कि तब भी विधायक के दबाव में प्रशासन ने कुचल दिया है। इसका खास कर यादव मतों में गलत संदेश गया है। साथ ही सपा के ही नगर पंचायत बबेरू अध्यक्ष सूर्यपाल यादव व विश्वंभर यादव के बीच अब तक छत्तीस के आंकड़े रहे है और विधायक का पक्ष लेकर प्रशासन ने सूर्यपाल के खिलाफ कई मुकदमें दर्ज किए थे, इसका भी इस चुनाव में असर पड़ता दिख रहा है। राजनीतिक विश्लेषक रणवीर सिंह चौहान कहते हैं कि ‘यदि वामपंथ के समय का ‘दलित-यादव’ गठजोड़ पुनर्जीवित हुआ तो सपा को मुंह की खानी पड़ेगी और बसपा का पलड़ा भारी हो सकता है। चूंकि यादव के बाद यहां दलित मतदाता काफी हैं और निवर्तमान विधायक से कहीं ज्यादा यादव मतदाता जहां ‘बाबूजी’ (स्व. देवकुमार) के परिवार के मुरीद हैं, वहीं दलित मतदाता बसपा के पुजारी हैं।’ वह कहते हैं कि ‘इस सीट में भी बसपा, सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा में त्रिकोणीय संघर्ष की नौबत है और मुस्लिम, वैश्य, लोधी और कुम्हार कौम का मतदाता निर्णायक भूमिका में रहेगा। इन कौमों को जो दल अपने पाले में खींचने में सफल रहा, वहीं ‘सिकंदर’ होगा।’