गुरुग्राम, मेदांता हॉस्पिटल में हाल ही में गैस्ट्रोस्कीसिस के साथ जन्म लेने वाली एक नवजात बालिका का सफल इलाज किया गया है। इस बच्ची की आँतें गर्भनाल के पास पेट की दीवार में एक छेद से होकर शरीर के बाहर निकली हुई थीं। यह एक जानलेवा स्थिति होती है, और अगर जन्म के बाद फौरन इलाज न मिल पाए, तो शिशु की जान भी जा सकती है।
बच्ची को बचाने के लिए अथक परिश्रम-
पंजाब स्थित श्रीमती साक्षी शुक्ला को गर्भावस्था के 18-20 हफ्तों में किए जाने वाले लेवल-2 के स्कैन में बच्ची के इस जन्मजात विकार के बारे में बता दिया गया था, जिसके बाद वो अपनी इस अत्यधिक जोखिम वाली गर्भावस्था के बाद प्रसव के लिए मेदांता गुरुग्राम आ गई थीं। मेदांता में आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर और डॉक्टरों की मल्टीडिसिप्लिनरी टीम के साथ डॉ. शंदीप कुमार सिन्हा (डायरेक्टर, पीडियाट्रिक सर्जरी), डॉ. प्रीति रस्तोगी (डायरेक्टर, ऑब्सटीट्रिक्स एंड गायनेकोलॉजी) और डॉ. टी जे एंटोनी (डायरेक्टर, नियोनैटोलॉजी) के नेतृत्व में पूरी टीम ने इस बच्ची को बचाने के लिए अथक परिश्रम किया।
भारत में गैस्ट्रोस्कीसिस के साथ जन्म लेने वाले बच्चों के बचने की दर 45 प्रतिशत है, जबकि पश्चिमी देशों में आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, टेक्नोलॉजी और एक ही जगह मल्टीडिसिप्लिनरी टीम की मौजूदगी के कारण यह 90 प्रतिशत है। मेदांता जैसे टर्शियरी और क्वाटर्नरी केयर सेंटर बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर, हाई-रिस्क प्रिग्नेंसी में विशेषज्ञ टीमों, लेवल-3 एनआईसीयू सुविधा, समर्पित पीडियाट्रिक एनेस्थेटिस्ट, और पीडियाट्रिक सर्जिकल टीम की उपलब्धता, तथा नवजात शिशुओं के लिए विशेष उपकरणों की मदद से अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बराबर सफलता दर प्रदान करने में समर्थ हैं।
इससे पहले ऐसे मामले जन्म के बाद आश्चर्य का कारण बन जाते थे, जिससे शिशु के बचने की दर कम हो जाती थी। अब, ऐसी मामले लेवल 2 के स्कैन में सामने आ जाते हैं, जिससे अभिभावकों को सही मदद मिल पाती है।
डॉ. प्रीति रस्तोगी, डायरेक्टर, ऑब्सटीट्रिक्स एंड गायनेकोलॉजी ने कहा, ‘‘जब मरीज 26 हफ्ते बाद हमारे पास आई, तब हमने पहले विकास संबंधी समस्याओं की जाँच की क्योंकि संबंधित सॉफ्ट टिश्यू और विकास संबंधी विकृतियाँ चुनौतियाँ उत्पन्न कर सकती हैं। हम निरंतर फौलोअप का परामर्श देते हैं, ताकि सुनिश्चित हो सके कि शिशु को इंट्रायूटेराईन ग्रोथ रेस्ट्रिक्शन (आईयूजीआर) या समयपूर्व डिलीवरी न हो। गैस्ट्रोस्कीसिस के मामले में यह बहुत आवश्यक होता है कि शिशु पूरे समय के बाद जन्म ले क्योंकि समय पूर्व जन्म लेने पर पहले से मुश्किल परिस्थिति और ज्यादा जोखिमों एवं जटिलताओं के साथ और ज्यादा चुनौतीपूर्ण बन जाती है। 37 हफ्ते का गर्भ पूरा होने के बाद चूंकि हमारे मरीज में गंभीर ओलिगोहाईड्रेम्नियोज़ (कम एम्नियोटिक द्रव) के शुरुआती लक्षण दिखाई देने लगे थे और पेट में शिशु की गतिविधि भी कम हो गई थी, इसलिए हमने उनकी सीज़ेरियन सेक्शन सर्जरी की। यद्यपि आईयूजीआर शुरू हो गया था, लेकिन जन्म के वक्त शिशु का वजन 2.3 किलोग्राम था और उसके अंग पूरी तरह से विकसित थे, जिसके कारण सर्जरी सुरक्षित बन गई।
डॉ. टी जे एंटोनी, डायरेक्टर, नियोनैटोलॉजी ने कहा, ‘‘शिशु अच्छी तरह से और सामान्य रूप से साँस ले सके, इसके लिए जन्म के समय नियोनैटल टीम मौजूद रही। सर्जिकल टीम ने एक साथ काम करके सुनिश्चित किया कि उसकी आँतें सूख न पाएं, और उन्हें नम बनाए रखने के लिए पॉलिथीन में लपेटे रखा और कीटाणुओं एवं प्रदूषकों से उनकी सुरक्षा की। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि कोई भी ब्लॉकेज या गलत घुमाव न हो सके। फिर हमने शिशु को नियोनैटल इंटेंसिव केयर यूनिट (एनआईसीयू) में पहुँचा दिया, जहाँ उसकी हालत स्थिर की गई, उसका प्रारंभिक इलाज किया गाय और दो घंटे के बाद उसे सर्जरी के लिए तैयार कर लिया गया।’’
यह ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है कि ऐसे मामलों का पूरा प्रोग्नोसिस अच्छा हो, और अगर प्रारंभिक अवधि को सफलतापूर्वक नियंत्रित कर लिया जाता है, तो ये शिशु सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं। गैस्ट्रोस्कीसिस के विकार को जन्म के 1 से 2 घंटे में शीघ्र बंद करके बेहतर परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।
डॉ. शंदीप कुमार सिन्हा, डायरेक्टर, पीडियाट्रिक सर्जरी ने कहा, ‘‘जीवन के पहले कुछ घंटों में नवजात शिशु की सर्जरी शरीर में क्षणिक परिवर्तनों के कारण जटिल होती है। ऐसी नाजुक प्रक्रियाओं के लिए विशेषज्ञता और आधुनिक सुविधाएं दोनों आवश्यक होती हैं। हमें यह सुनिश्चित करना था कि आँत पेट में अपनी सही जगह स्थापित हो जाए। इस काम को बहुत सटीकता से किया जाना था। इसलिए दबाव डाले बिना आवश्यक जगह बनानी बहुत जरूरी थी। इस शिशु में मेकोनियम (शिशु का पहला मल) निकलने के बाद और नाजुक त्वचा के फ्लैप को हटाकर हम पेट की कैविटी में आँत की जगह बनाने में सफल रहे। हमारे एनेस्थेटिस्ट ने सर्जरी के दौरान शिशु पर पूरी नजर रखी। हमने सुनिश्चित किया कि पेट बंद होने के साथ कंपार्टमेंट सिंड्रोम न हो। पूरी सर्जरी में 1 घंटे 30 मिनट का समय लगा और ऑपरेशन के बाद कोई भी जटिलता उत्पन्न नहीं हुई।’’
सर्जरी के बाद शिशु को एनआईसीयू में भेज दिया गया और 48 घंटे तक वैंटिलेटर पर रखा गया। जन्म के पाँचवें दिन से उसे गैस्ट्रिक आहार दिया जाने लगा। तब तक उसे नसों द्वारा एमीनो एसिड, फैट, कार्बोहाईड्रेट और इलेक्ट्रोलाईट्स (माँ का संपूर्ण आहार) दिया जा रहा था। डॉ. एंटोनी ने कहा, ‘‘हमने धीरे-धीरे आहार बढ़ाया। हमने सुनिश्चित किया कि शिशु आहार को पचा सके, उसे कोई संक्रमण न हो, और उसका वजन बढ़ सके। 12 दिन के बाद यह बच्ची अपनी माँ के साथ घर जाने के लिए तैयार थी।’’
उसकी माँ श्रीमती साक्षी शुक्ला ने कहा, ‘‘मैं मेदांता की मेडिकल टीम की बहुत आभारी हूँ, जिन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से मेरी बच्ची को बचा लिया। मेरे स्कैन देखकर मुझे अहसास हो गया था कि मुझे अपने शिशु के लिए विशेषज्ञ देखभाल की जरूरत पड़ेगी, और मेदांता में हमें वह देखभाल मिली। गैस्ट्रोस्कीसिस के लिए एक टर्शियरी केयर हॉस्पिटल में इलाज की जरूरत होती है, जहाँ आवश्यक मानव संसाधन, इन्फ्रास्ट्रक्चर और टेक्नोलॉजी मौजूद हों। मेदांता में डॉक्टरों से आसानी से संपर्क किया जा सकता था और उन्होंने हर चीज़ बहुत विस्तार से समझाई। हालत की अनिश्चितता और दुर्लभ होने के कारण हमें उच्च क्वालिटी की केयर और सपोर्ट चाहिए थी, जिसकी मदद से हम आत्मविश्वास के साथ जीवन के इस चरण से गुजर पाए और अब सुरक्षित महसूस कर रहे हैं।’’
रिपोर्टर आभा यादव