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आखिर कैसे भेजेंगे जिगर के टुकड़े को स्कूल

मेरठ, कोरोना संकटकाल में अनिश्चितताओं के बवंडर के बीच अभिभावक इस तनाव में हैं कि प्रभावी उपचार या टीका आने तक अपने कलेजे के टुकड़े को आखिर कैसे स्कूल भेज देंगे।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली, गुरुग्राम और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के करीब 10 हजार लोगों पर 12 से 14 जून तक किये गये ऑनलाइन शोध सर्वे “कोरोना वायरस के रहते बच्चे को स्कूल कैसे भेजें” की रिपोर्ट में ऐसे ही कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं। सामाजिक विज्ञानी डा उजमा नाज ने यह शोध सर्वे मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के नानक चंद एंग्लों संस्कृत स्नातकोत्तर कालिज के पूर्व प्राचार्य एवं प्रमुख समाज शास्त्री प्रोफेसर धर्मवरी महाजन के नेतृत्व में किया है।

डा उजमा ने बताया कि सर्वे में 77.5 प्रतिशत पुरुष और 22.5 प्रतिशत महिलायें शामिल हुईं, जिनमें 84.3 प्रतिशत माता पिता, 5.5 प्रतिशत दादा दादी, 1.2 नाना नानी और 8.9 प्रतिशत अन्य अभिभावक थे। इनमें सबसे ज्यादा कक्षा एक से 5 तक 40.1 प्रतिशत, कक्षा 6 से 8 तक के 21.6 प्रतिशत, कक्षा 9 से 12 के 20 और नरसरी से यूकेजी के बच्चों के 18.4 प्रतिशत अभिभावक शामिल हुए।

समाज शास्त्र में पीएचडी करने के अलावा कई शोध सर्वे कर चुकीं डा उजमा ने बताया कि तमाम अभिभावकों ने मौजूदा कोराना के कहर को देखते हुए बच्चे के करियर के बजाय उसकी जिन्दगी को अपनी पहली वरीयता दी है। उनका मत है कि जब उन्होंने लॉकडाउन के बाद से आज तक बच्चे को पड़ोस में हॉबी क्लास, खेलकूद या बर्थडे पार्टी में नहीं भेजा तो स्कूल भेजने के बारे में कैसे सोच सकते हैं जबकि अभी तक कोरोना का कहर थमा नहीं है।

डा उजमा ने बताया कि 97.3 प्रतिशत अभिभावकों का मानना है कि बच्चों को कोरोना से पूरी तरह सुरक्षित रख पाने में स्कूल सक्षम नहीं हैं और उनका बच्चा वहां सुरक्षित नहीं रह सकता। तमाम सुरक्षा उपायों का दावा करने वाले स्कूल में उनके बच्चे की देखभाल वैसी नहीं हो पायेगी जैसी घर पर वे स्वयं करते हैं।

स्कूल की जिम्मेदारी के संबंध में डा उजमा ने बताया कि अगर किसी स्कूल में कुछ बच्चे कोरोना संक्रमित हो जाते हैं तो 54.2 प्रतिशत अभिभावकों ने इसके लिये स्कूल प्रबंधन को और 45.3 प्रतिशत ने स्वयं अभिभावकों को जिम्मेदार ठहराया है जबकि 74 प्रतिशत का कहना है कि वे स्कूल से अपने बच्चे की सुरक्षा की गारंटी के लिये लिखित अनुबंध लिये बगैर बच्चे को स्कूल नहीं भेजेंगे।

डा उजमा ने बताया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के हवाले से 84.3 प्रतिशत अभिभावकों का कहना है कि उनके बच्चे के लिये स्कूल में लगातार छह घंटे तक मास्क लगाये रखना संभव नहीं होगा, जबकि 15.7 प्रतिशत इसे संभव मानते हैं। इसके अलावा 96.8 प्रतिशत ने स्कूल बसों को सोशल डिस्टेंसिंग को पूरी तरह असुरक्षित करार दिया है।

अधिकांश (81.8 प्रतिशत) अभिभावकों ने स्कूल में चैक की गई कापियों और किताबों को बच्चों के लिये असुरक्षित बताते हुए इससे कोराना संक्रमण की आशंका व्यक्त की है जबकि 82 प्रतिशत लॉकडाउन के दौरान नोएडा के जिलाधिकारी के आदेश पर तमाम स्कूलों की फीस माफ करने की तर्ज पर इस अवधि की फीस न देने के पक्ष में हैं।

डा उजमा ने बताया कि 91.3 प्रतिशत अभिभावक अमरीका और कुछ अन्य देशों की तरह कोरोना वायरस के कहर से बचने के लिये इस वर्ष को जीरो (शून्य) शैक्षणिक वर्ष घोषित करवाने के पक्ष में हैं, जिससे बच्चे को इस साल स्कूल न भेजकर अगले वर्ष अगली क्लास में प्रोमोट कर दिया जाये जबकि 8.7 ने इसका विरोध किया है।