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खून के दौरे में रुकावट आने से होता है पक्षाघात…….

bloodमस्तिष्क के किसी भाग में जब खून का दौरा अचानक बंद हो जाता है या रुक जाता है तो मस्तिष्क का वह हिस्सा काम करना बंद कर देता है। आघात की गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि मस्तिष्क का वह विशेष हिस्सा कितना बड़ा है तथा कितने समय के लिए खून का दौरा रुका रहा। स्ट्रोक होते ही उनका शरीर लगभग निर्जीव-सा हो गया, उनके लकवा खाए अंगों की चेतना जाती रही। वे अपने शरीर को अपनी मर्जी से हिलाडुला भी नहीं सकते। हालांकि उनका इलाज अब भी चल रहा है परन्तु डॉक्टरों के अनुसार उनमें एक सीमा तक ही सुधार होगा।

मस्तिष्क के किसी भाग में जब खून का दौरा अचानक बंद हो जाता है या रुक जाता है तो मस्तिष्क का वह हिस्सा काम करना बंद कर देता है। आघात की गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि मस्तिष्क का वह विशेष हिस्सा कितना बड़ा है तथा कितने समय के लिए खून का दौरा रुका रहा। आघात से मस्तिष्क के उस विशेष हिस्से के न्यूरान नष्ट हो जाते हैं और वहां सूजन आ जाती है और वह काम करना बंद कर देता है। इसके परिणाम स्वरूप मस्तिष्क का वह हिस्सा शरीर के जिन भागों का नियन्त्रण करता था वे निर्जीव हो जाते हैं, उनकी क्रिया करने की शक्ति खत्म हो जाती है। इस स्थिति को पक्षाघात कहते हैं। कई कारण ऐसे हैं जिनसे मस्तिष्क में खून के दौरे में रुकावट आ जाती है जैसे मस्तिष्क की किसी संकरी हो चुकी धमनी में रक्त का थक्का फंस जाना। यदि धमनी फट जाए और उससे खून मस्तिष्क में भीतर ही बिखरने लगे तो भी ब्रेन स्ट्रोक हो सकता है।

ऐसा भी हो सकता है कि धमनियां पूरी तरह स्वस्थ हों और शरीर में किसी दूसरे भाग में जमे खून का कतरा आकर धमनी में खून के दौरे में रुकावट पैदा कर दे, इससे भी आघात हो सकता है। जब आघात किसी संकरी धमनी में खून का थक्का फंसने से होता है तो उसे थ्रॉम्बोटिक स्ट्रोक कहते हैं। यह आघात प्रायः प्रातःकाल में होता है। प्रायः रोगी की आंख खुलने से पहले ही वह लकवाग्रस्त हो चुका होता है। शुरुआती एक−दो दिन में लकवा बढ़ भी सकता है। इस दौरान रोगी बेहोश हो सकता है। होश में होने पर भी रोगी पूरी तरह निष्क्रिय रहता है। धमनी फटने से होने वाले आघात को हेमरेजिक स्ट्रोक या ब्रेन हेमरेज कहते हैं। इस प्रकार का आघात कुछ काम करते−करते ही होता है। ब्रेन हेमरेज से पहले सिर में तेज दर्द और उल्टी भी हो सकती है। लगभग पचास प्रतिशत मामलों में रोगी हेमरेज होते ही बेहोश हो जाता है। कुछ रोगियों को मिर्गी जैसा दौरा भी पड़ता है। शरीर के किसी अन्य भाग में जमे खून के कतरे के कारण धमनी में खून का दौरा अवरुद्ध होने से जो आघात होता है उसे इम्बोलिक स्ट्रोक कहते हैं।

कई मामलों में ब्रेन स्ट्रोक से पहले मस्तिष्क में खून का दौरा घटने से कुछ अस्थायी लक्षण उत्पन्न होते हैं। मस्तिष्क के जिस क्षेत्र को खून की आपूर्ति प्रभावित होती है, रोगी में लक्षण भी उसी प्रकार के उभरते हैं। प्रायः मरीजों में दाएं अथवा बाएं हाथ−पैर की शक्ति कुछ मिनटों के लिए जाती रहती है। कुछ मरीजों में इस दौरान बोलने की शक्ति भी खत्म हो जाती है। कुछ मरीजों को चक्कर आते हैं और उन्हें साफ दिखाई देना भी बंद हो जाता है। कुछ मरीजों में अधरंग जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ये सभी लक्षण अस्थाई होते हैं जो 24 घंटे बीतने से पहले ही अपने आप साफ हो जाते हैं इसलिए इन्हें ट्रांजिट इस्कीमिक अटैक (टीआईए) कहते हैं।

शरीर के अन्य भागों की धमनियों में संकरापन आने के कारण ही मस्तिष्क की धमनियों में भी संकरापन आता है। जिस प्रकार धूम्रपान करने, रक्त में बुरे कोलेस्ट्रोल की मात्रा बढ़ने तथा वंशानुगत कारणों से हृदय में कोरोनरी धमनी रोग हो जाता है उसी के साथ मस्तिष्क की धमनियों के संकरा होने की आशंका भी बढ़ जाती है। खून में ज्यादा चिपचिपाहट होने तथा लिपिड बढ़ने से उसमें गाढ़ापन आ जाता है और प्लेटलेट कणों में थक्के बनने की प्रवृत्ति भी बढ़ जाती है। कई बार धमनी की दीवारें इतनी कमजोर होती हैं कि बढ़े हुए रक्तचाप का दबाव सहन नहीं कर पाती और फट जाती हैं। यदि कोई गर्भवती स्त्री कोई रक्तजमावरोधक दवा ले रही हो या उसे एक्लेम्पसिया (विषाक्तता) हो जाए तो भी इस बात की संभावना बढ़ जाती है। आघात होते ही तुरन्त डॉक्टर को बुलाना चाहिए। डॉक्टर की सलाह से ही रोगी को किसी बड़े अस्पताल में ले जाना चाहिए जहां उसका समुचित उपचार हो सके।

क्लीनिकल परीक्षण के बाद मस्तिष्क का सीटी स्कैन या एमआरआई किया जाता है। इससे यह बात साफ हो जाती है कि लकवा खून के दौरे में अवरोध से हुआ है या धमनी के फटने से हुआ है। वास्तव में इसी जानकारी के आधार पर इलाज की दिशा तय की जाती है। आघात के बाद पहले 48 से 72 घंटे बहुत ही नाजुक होते हैं। जिन मामलों में खून का कतरा फंसने से खून का दौरा टूटा हो, उसमें रोगी की स्थिति देखते हुए कोई रक्तजमावरोधक दवा देकर कतरे को घोलने तथा खून का दौरा पुनः बहाल करने का प्रयास किया जाता है। इस दौरान रोगी को इस प्रकार की दवाएं दी जाती हैं जिससे मस्तिष्क की सूजन कम हो। इलाज के दौरान इस बात का पूरा−पूरा ध्यान रखा जाता है कि रोगी को कम से कम नुकसान हो तथा जीवन के लिए जरूरी क्रियाएं सुचारू रूप से चलती रहें।

इलाज के दौरान रोगी की सांस चलाए रखने तथा शरीर को पोषण देने के लिए नसों के द्वारा तरल आहार देने की व्यवस्था की जानी चाहिए। चूंकि इस दौरान निगलने की क्रिया पर ज्यादा जोर नहीं रहता इसलिए नाक से पेट तक प्लास्टिक की ट्यूब लगा दी जाती है इसी प्रकार मूत्राशय में रबड़ या प्लास्टिक की नली (कैथेटर) डाल दी जाती है जिससे रोगी की साफ−सफाई रहती है। इस समय रोगी को करवट दिलाने तथा मांस−पेशियों की मालिश आदि का ख्याल रखना चाहिए। रोगी की सेवा सुश्रुषा यदि ठीक तरह से होती रहे तो उसे किसी अन्य समस्या का सामना नहीं करना पड़ता। साथ ही मरीज को अपनी हिम्मत भी बांधे रखनी पड़ती है। परिवारजनों को भी चाहिए कि स्वयं हिम्मत रखते हुए रोगी को भी हिम्मत बधाएं क्योंकि आघात के बाद रोगी में सुधार की गति बहुत धीमी होती है। खांसने तथा निगलने की क्रियाओं पर रोगी का नियंत्रण न होने के कारण फेफड़ों में संक्रमण हो सकता है, कुछ मरीजों को निमोनिया भी हो जाता है। साथ ही रोगियों के कूल्हों, कमर, एडियों और टखनों की त्वचा फटने की आशंका भी होती है।

लकवाग्रस्त पैर में खून का कतरा बनने और उसके फेफड़ों की धमनियों में पहुंचने का खतरा हो सकता है। कुछ रोगियों को मिर्गी जैसा दौरा भी पड़ सकता है। इन सब समस्याओं के अतिरिक्त इलाज के दौरान मरीज को कुछ मानसिक समस्याओं− जैसे क्रोध, अवसाद, चिड़चिड़ापन, गहरी चिंता आदि से भी जूझना पड़ता है। कुछ रोगियों की याददाश्त पर भी बुरा असर पड़ता है। जहां तक सुधार का प्रश्न है पहले 15 दिनों में रोगी की स्थिति में जितना सुधार आ जाए अच्छा है। इसके बाद के पांच−छह महीनों तक सुधार होता है परन्तु पहले तीन महीनों के बाद सुधार की गति धीमी पड़ जाती है। कई ऐसे एहतियाती कदम हैं जिन्हें आघात की आशंका से बचने के लिए उठाया जाना चाहिए जैसे रक्तचाप पर निगाह रखना और बढ़े हुए रक्तचाप पर नियन्त्रण रखना और संतुलित भोजन का सेवन करना चाहिए।

रक्त में कोलेस्ट्रोल की मात्रा पर नियन्त्रण भी जरूरी है। मोटापे तथा धूम्रपान से बचना चाहिए तथा नियमित व्यायाम करना चाहिए। साथ ही तनाव का भी हमारी धमनियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है इसलिए तनाव से बचने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए। यदि किसी रोगी में लकवे के पूर्वसूचक लक्षण उभरें तो तुरन्त डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए। प्रायः ऐसे मामलों में रोगी को एसप्रीन या डायपिरामिडोल रखने की सलाह दी जाती है इन दवाओं से रक्त कणों में थक्के बनने की आशंका कम हो जाती है।