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बसपा को अपने पुराने एजेंडे पर आने की दरकार

कमल जयंत (वरिष्ठ पत्रकार)। बसपा प्रमुख मायावती जी ने पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चन्द्र मिश्रा के करीबी नकुल दुबे को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया है, इसको लेकर बसपा समर्थकों के बीच यह चर्चा शुरू हो गयी है कि यदि बहनजी सतीश चन्द्र मिश्रा को भी बाहर कर दें तो बहुजन आन्दोलन फिर से मजबूत हो जायेगा। दरअसल बसपा से जुड़े दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज के नेता व कार्यकर्त्ता यही मानते रहे हैं कि पार्टी की जो दुर्गति हुई है, उसके लिए सिर्फ और सिर्फ सतीश चन्द्र मिश्रा ही जिम्मेदार हैं, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है, मायावती जी ने जिस तरह से अपने को बहुजन आन्दोलन से दूर कर लिया है, उसके बाद तो बसपा और बहुजन मूवमेंट का ये हश्र होना ही था। मायावती जी ने वर्ष 1995 में मुख्यमंत्री बनने के साथ ही जिस तरह से बहुजन आन्दोलन को सर्वजन में तब्दील करने के साथ ही अम्बेडकर मेले का आयोजन बंद किया, उसी दिन से बहुजन आन्दोलन का पराभव सुनिश्चित हो गया था, बहुजन नायक कांशीराम जी के जीवित रहते तक पार्टी बहुजन समाज की समस्याओं को लेकर भी मुखर रहती थी, लेकिन उनके निर्वाण प्राप्त करने के बाद से पार्टी नेतृत्व दिशा भ्रमित होता चला गया और अपने जनाधार को छोड़कर वह सर्वसमाज खासतौर पर ब्राहमणों को पार्टी से जोड़ने के अभियान से जुट गया। नतीजा ये रहा कि ब्राहमण पार्टी से जुड़ा नहीं और नेतृत्व के इस रवैये से नाराज होकर बहुजन समाज जिसमें दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज शामिल है, ये बसपा से धीरे-धीरे करके दूर होता चला गया। नतीजा सबके सामने है, राज्य की राजनीति में 15 साल के अन्दर पार्टी के विधायकों की संख्या 212 से घटकर महज एक रह गयी, वोट और सीट के लिहाज से बसपा के लिए सबसे बड़ी शिकस्त है।

बसपा की इस पराजय के लिए सतीश चन्द्र मिश्रा नहीं बल्कि केवल और केवल मायावती जी की नीतियां ही जिम्मेदार हैं। वर्ष 2012 में यूपी की सत्ता से बाहर होने के बाद बसपा प्रमुख ने दलितों, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों की समस्याओं को लेकर कोई बड़ा आन्दोलन नहीं चलाया और ना ही उन्होंने किसी भी आन्दोलन की अगुवाई की, बल्कि पार्टी कार्यकर्ताओं को भी किसी आन्दोलन से दूरी बनाए रखने की हिदायत दी, यही वजह रही कि वर्ष 2018 में दो अप्रैल को दलित उत्पीड़न एक्ट में बदलाव के विरोध में दलितों, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के संयुक्त आन्दोलन से बसपा ने अपने को दूर रखा, यूपी समेत पूरे देश में सीएए और एनआरसी के खिलाफ हुए बड़े आन्दोलन से भी बसपा नेतृत्व ने अपने को दूर रखा, इसी का नतीजा रहा कि चुनाव में बहुजन समाज ने बसपा से दूरी बना ली, बसपा नेतृत्व अब प्रतीकों की राजनीति के जरिये एकबार फिर अपने खोये हुए जनाधार को वापस लाने की कवायद कर रहा है। चूँकि बहुजन समाज के लोग इनमें भी खासतौर पर दलित वर्ग बसपा की दुर्गति के लिए सतीश चन्द्र मिश्रा को ही दोषी मानता है, यही वजह है कि नकुल दुबे को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद से इस वर्ग में ये उम्मीद जागी है कि सतीश चन्द्र मिश्रा के बाहर जाते ही बसपा को बर्बाद होने से बचाया जा सकेगा, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है, पार्टी के इस हाल के लिए सीधे तौर पर बहनजी ही जिम्मेदार हैं, यदि मिश्रा जी को बाहर का रास्ता दिखा भी दिया गया या वे खुद छोड़कर चले गए तब भी पार्टी की हालत में सुधार आने वाला नहीं है। क्योंकि प्रतीकों की राजनीति और विभिन्न जातियों के नेताओं को पार्टी से जोड़ लेने के बाद भी ये वर्ग पार्टी से जुड़ने वाला नहीं है, इन्हें जोड़ने के लिए इनके बीच जाने के साथ ही इनके दुख-सुख में शामिल होकर इनकी समस्याओं के निराकरण के लिए आन्दोलन करना होगा, जैसा बसपा नेतृत्व अपने शुरुआती दौर में किया करता था, जिसकी वजह से सोनेलाल पटेल, ओमप्रकाश राजभर जैसे अनेकों नेता स्थापित हुए, लेकिन बहनजी की नीतियों के चलते इन नेताओं ने अपने समाज के बीच बीच मजबूत विकल्प दिया, जिसका भारी नुकसान बसपा को उठाना पड़ा, पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए नेतृत्व को एक बार फिर छोटे-छोटे कैडर कैम्प चलाने की जरूरत है पार्टी के सामने इसके आलावा और कोई विकल्प नहीं है।

सामाजिक संस्था बहुजन भारत के अध्यक्ष एवं पूर्व आईएएस कुंवर फ़तेह बहादुर का कहना है कि जिस फार्मूले से वर्ष 1993 में कांशीराम जी ने मुलायम सिंह से गठबंधन करके भाजपा के रथ को ना केवल यूपी में ही रोक दिया था, बल्कि राज्य में सपा-बसपा गठबंधन की सरकार भी बनायी थी, जबकि वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी में ही रोकने के लिए एकबार फिर सपा-बसपा के बीच गठबंधन हुआ, लेकिन दोनों दल मिलकर भी कोई करिशमा नहीं कर पाए, इसकी मुख्य वजह ये रही कि बसपा ने पहले की तरह बहुजन समाज के लोगों के बीच जाकर उनके दुख-सुख में शामिल होना बंद कर दिया था, जिसकी वजह से दोनों दल मिलकर भी यूपी में भाजपा को शिकस्त नहीं दे सके, क्योंकि केवल नेताओं के बीच गठबंधन करने से भाजपा को सत्ता में आने से नहीं रोका जा सकता, इसके लिए बसपा नेतृत्व को बहुजन समाज की विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक गठबंधन स्थापित करना होगा।

कमल जयंत (वरिष्ठ पत्रकार)।