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अमेरिका और तालिबान के बीच समझौता या एक सुपरपावर की हार

अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते पर मुहर लग गई। दोनों पक्षों के हस्ताक्षर से हुए इस समझौते के तहत अमेरिका अगले 14 महीने में अफगानिस्तान से सभी बलों को वापस बुलाएगा।

अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने को अंतरराष्ट्रीय जगत में एक सुपरपावर की हार के तौर पर देखा जा रहा है ।

पिछले 18 साल से अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में तैनात हैं और अफगानिस्तान की धरती पर लड़ रहे हैं. वर्तमान में करीब 30 हजार से ज्यादा सैनिक अफगानिस्तान में तैनात हैं।

अफगानिस्तान में लगभग 20 सालों से चल रहे युद्ध को खत्म कर अमेरिका अपने 20 हजार सैनिकों को यहां से निकालकर वापस अपने देश ले जायेगा। अमेरिका में 2020 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में यह बड़ा मुद्दा है। राष्ट्रपति ट्रंप ने पिछले चुनाव प्रचार में दो दशकों से अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी फौज की वापसी को बड़े मुद्दे के रूप में भुनाया था। अब इस समझौते के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी से ट्रंप को इस मुद्दे पर राष्ट्रपति पद के चुनाव में फायदा हो सकता है।

अमेरिका और तालिबान के बीच शांति वार्ता का सफल होना भारत के साथ-साथ अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार के लिए भी बड़ा खतरा है।ईरान के चाबहार पोर्ट के विकास में भारत ने भारी निवेश किया हुआ है। इस परियोजना को चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना की काट माना जा रहा है। ऐसे में यदि तालिबान सत्तासीन होता है तो भारत की यह परियोजना भी खतरे में पड़ सकती है क्योंकि इससे अफगानिस्तान के रास्ते अन्य देशों में भारत की पहुंच बाधित होगी।

न्यूयॉर्क में 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद अमेरिका समर्थित गठबंधन सेना ने अक्तूबर 2001 में अफगानिस्तान पर हमला कर दिया था। अमेरिका में हुए आतंकी हमले में ओसामा बिन लादेन के संगठन अलकायदा का हाथ था, जो अफगानिस्तान से संचालित हो रहा था। 9/11 के कुछ समय बाद ही अमेरिका के नेतृत्व में गठबंधन सेना ने तालिबान को अफगानिस्तान में सत्ता से बेदखल कर दिया था।

अब अमेरिकी फौजों के वापस जाते ही तालिबान अफगान सरकार के खिलाफ युद्ध का ऐलान भी कर सकता है, इससे इस देश में गृहयुद्ध का खतरा पैदा हो सकता है।अमेरिका अब अपने सैनिकों को वापस बुला लेगा, जिससे तालिबान को फिर से अपनी जड़ें मजबूत करने से रोकने के लिए कोई बड़ी ताकत मौजूद नहीं होगी।