लखनऊ, आज कचरा किसी भी रूप में हो, वह देश और दुनिया के लिये एक बहुत बड़ा पर्यावरणीय संकट बनता जा रहा है। विज्ञान क्लब लखनऊ के समन्वयक डाॅ0 डी.बी.सिंह ने बताया कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद उ०प्र० से अभिप्रेरित एवं जिला विज्ञान क्लब के तत्वावधान में सुभाष चन्द्र बोस एकेडमी इंटर कालेज भिटौली, रिंग रोड, लखनऊ में पर्यावरण रक्षा हेतु प्लास्टिक वाले मेडिकल वेस्ट तथा अन्य नान-डिग्रेडबल पदार्थों का दैनिक जीवन में नियंत्रण और प्रबंधन पर वैज्ञानिक जागरुकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस अवसर पर बोलते हुए डॉ० डी० बी० सिंह ने कहा कि आज कचरा किसी भी रूप में हो, वह देश और दुनिया के लिये एक बहुत बड़ा पर्यावरणीय संकट बनता जा रहा है। हम जानते हैं कि हर शहर में कई निजी व सरकारी अस्पताल होते हैं, जिनसे प्रतिदिन सैकड़ों टन चिकित्सकीय कचरा निकलता है और यदि पूरे देश में इनकी संख्या की बात करें तो देश भर के अस्पतालों से निकलने वाला कचरा कई हजार टनों में होता है। इस भागम-भाग की जिंदगी में बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं, बीमारों की संख्या बढ़ रही है, अस्पतालों की संख्या भी बढ़ रही है और उसी हिसाब से उन बीमार व्यक्तियों के इलाज में प्रयुक्त होने वाले सामानों की संख्या बढ़ रही है, जिन्हें इस्तेमाल करके कचरे में फेंक दिया जाता है, जो एक बायोमेडिकल कचरे का रूप ले लेता है। ये बायोमेडिकल कचरा हमारे-आपके स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये कितना खतरनाक है, इसका अंदाजा आप और हम नहीं लगा सकते हैं। इससे न केवल और बीमारियाँ फैलती हैं बल्कि जल, थल और वायु सभी दूषित होते हैं। ये कचरा भले ही एक अस्पताल के लिये मामूली कचरा हो लेकिन भारत सरकार व मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अनुसार यह मौत का सामान है। ऐसे कचरे से इनफेक्सन, एचआईवी, महामारी, हेपेटाइटिस जैसी बीमारियाँ होने का भी डर बना रहता है। आइए जानते हैं क्या होता है बायोमेडिकल कचरे के विषय एवं इसके उचित निपटान की जानकारी देते हुए मशहूर प्रर्यावरण व्याख्याता वंदना कटियार ने कहा कि हो सकता है आपने कभी किसी अस्पताल के आस-पास से गुजरते हुए उसके आस-पास या फिर किसी सुनसान इलाके में पड़े कचरे को देखा हो जिसमें उपयोग की गई सूइयाँ, ग्लूकोज की बोतलें, एक्सपाइरी दवाएँ, दवाईयों के रैपर के साथ-साथ कई अन्य सड़ी गली वस्तुएँ पड़ी हुई हैं। यही होता है, बायोमेडिकल कचरा या जैविक चिकित्सकीय कचरा। कैसी विडंबना है कि अस्पताल जहाँ हमें रोगों से मुक्ति प्रदान करता है, वहीं यह विभिन्न प्रकार के हानिकारक अपशिष्ट यानि कचरा भी छोड़ता है। लेकिन ये हमारी समझदारी पर निर्भर करता है कि हम इससे कैसे छुटकारा पाएँ। ऐसा तो हो नहीं सकता कि अस्पतालों से कचरा न निकले, परंतु इसके खतरे से बचने के लिये इसका उचित प्रबंधन और निपटान आवश्यक है। इस कचरे में काँच व प्लास्टिक की ग्लूकोज की बोतलें, इंजेक्शन और सिरिंज, दवाओं की खाली बोतलें व उपयोग किए गए आईवी सेट, दस्ताने और अन्य सामग्री होती हैं। इसके अलावा इनमें विभिन्न रिपोर्टें, रसीदें व अस्पताल की पर्चियाँ आदि भी शामिल होती हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्दू फारसी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के शिक्षक एवं पत्रकार डॉ० नीरज कुमार ने कहा कि अस्पतालों से निकलने वाले इस कचरे को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार निम्न वर्गों में बाँटा गया है: जिला विज्ञान क्लब के सहायक समन्वयक कुंवर दिव्यांश सिंह ने कहा कि बायोमेडिकल कचरा प्राइवेट व सरकारी दोनों ही तरह के अस्पतालों से निकलता है। कई बार इन अस्पतालों के कुछ स्टाफ सदस्य लालच में आकर इस जैविक कचरे को कबाड़ियों को बेच देते हैं। कई प्राइवेट अस्पताल तो इस कचरे के निपटारन या निस्तारण शुल्क से बचने के लिये इसे आस-पास के नालों एवं सुनसान जगहों पर डलवा देते हैं और वहीं से कचरा चुनने वाले इसे इक्ट्ठा करके कबाड़ियों को बेच देते हैं। इस कबाड़ में कुछ ऐसी भी सामाग्री होती हैं जैसे कि सिरिंज, गोलियों की शीशियां, हाइपोडर्मिक सूइयाँ व प्लास्टिक ड्रिप आदि जोकि थोड़ा बहुत साफ-सफाई करके निजी मेडिकल क्लीनिकों को दोबारा बेचने लायक हो सकती हैं। इस तरह से कबाड़ चुनने वाले भी अपनी कमाई कर लेते हैं और इसके लिये वे वार्ड क्लीनर को भी कुछ हिस्सा देते हैं। इस तरह बिना निपटान के अस्पतालों के कचरे के बाहर फेंकने से यह एक री-पैकेजिंग उद्योग का एक बड़ा हिस्सा बन कर फल-फूल रहा है। बायोमेडिकल वेस्ट अधिनियम 1998 के अनुसार निजी व सरकारी अस्पतालों को इस तरह के चिकित्सीय जैविक कचरे को खुले में या सड़कों पर नहीं फेंकना चाहिए। ना ही इस कचरे को म्यूनीसिपल कचरे में मिलाना चाहिए। साथ ही स्थानीय कूड़ाघरों में भी नहीं डालना चाहिए, क्योंकि इस कचरे में फेंकी जानी वाली सेलाइन बोतलें और सिरिंज कबाड़ियों के हाथों से होती हुई अवैध पैकिंग का काम करने वाले लोगों तक पहुँच जाती हैं, जहाँ इन्हें साफ कर नई पैकिंग में बाजार में बेच दिया जाता है। बायोमेडिकल वेस्ट नियम के अनुसार, इस जैविक कचरे को खुले में डालने पर अस्पतालों के खिलाफ जुर्माने व सजा का भी प्रावधान है। कूड़ा निस्तारण के उपाय नहीं करने पर पाँच साल की सजा और एक लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान है। इसके बाद भी यदि जरूरी उपाय नहीं किए जाते हैं तो प्रति दिन पांच हजार का जुर्माना वसूलने का भी प्रावधान है। नियम-कानून तो है, लेकिन जरूरत है, इसको कड़ाई से लागू करने की। नियम के अनुसार, अस्पतालों में काले, पीले, व लाल रंग के बैग रखने चाहिए। ये बैग अलग तरीके से बनाए जाते हैं, इनकी पन्नी में एक तरह का केमिकल मिला होता है जो जलने पर नष्ट हो जाता है, तथा दूसरे पॉलिथिन बैगों की तरह जलने पर सिकुड़ता नहीं है। इसी लिये इस बैग को बायोमेडिकल डिस्पोजेबल बैग भी कहा जाता है। क्या हैं ये लाल, पीले व काले बैग? दरअसल, विभिन्न प्रकार के बायोमेडिकल कचरे को अलग-अलग इकट्ठा करने वाले बैगों या डिब्बों को अलग-अलग रंग दिया जाता है, ताकि इनके निपटान में आसानी हो। लाल बैग में सिर्फ सूखा कचरा ही डालना चाहिए जैसे कि रुई, गंदी पट्टी, प्लास्टर आदि। पीले बैग में गीला कचरा, बायोप्सी, मानव अंगों का कचरा आदि डालना चाहिए। इसी तरह से काले बैग में सूइयाँ, ब्लेड, काँच की बोतलें, इंजेक्शन आदि रखे जाते हैं। इन सबके अलावा, अस्पतालों में एक रजिस्टर भी होना चाहिए, जिसमें बायोमेडिकल वेस्ट ले जाने वाले कर्मचारी के हस्ताक्षर करवाए जाएँ। अस्पतालों से निकलने वाले इस कूड़े को बायोमेडिकल वेस्टेज ट्रीटमेंट प्लांट में भेजा जाना चाहिए। जहाँ पर इन तीनों बैगों के कूड़े को हाइड्रोक्लोराइड एसिड से साफ किया जाता है जिससे कि इनके कीटाणु मर जाएँ। आटोब्लेड सलेक्टर से कूड़े में से निकली सूइयों को काटा जाता है, जिससे कि इनको दोबारा प्रयोग में ना लाया जा सके। इसके बाद कूड़े में से काँच, लोहा, प्लास्टिक जैसी चीजों को अलग किया जाता है। शेष बचे हुए कूड़े-कचरे को प्लांट में डालकर उसमें कैमिकल मिलाकर नष्ट कर दिया जाता है। ऐसा करने से बायोमेडिकल कचरे के दुरुपयोग और इससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है। बायोमेडिकल कचरे की विभीषिका पर प्रकाश डालते हुए सुभाष चन्द्र बोस पी० जी० कालेज के रसायन विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ० नीरज कुमार वर्मा ने कहा कि अस्पतालों से निकलने वाला यह जैविक कचरा किसी के लिये भी खतरनाक हो सकता है। इस कचरे में कई तरह की बीमारियों से ग्रस्त मरीजों के उपयोग में लाए गए इंजेक्शन, सूइयाँ, आईवी सेट व बोतलें आदि होती हैं। कबाड़ी इस कचरे को रिसाइकिल कर बेच देते हैं और कई स्थानीय कम्पनियाँ इन बोतलों व सूइयों को साफ कर फिर से पैकिजिंग कर देती हैं। ऐसे में इनके उपयोग से संक्रमण के साथ-साथ अन्य लोगों की जान जाने का भी खतरा होता है। इन जैविक कचरों में कई ऐसी सड़ी-गली चीजें भी होती हैं, जिनसे उनको खाने कि लिये कुत्ते व सुअर भी आ जाते हैं, इस तरह जानवरों में और फिर उनसे लोगों में संक्रमण फैलने का खतरा बना रहता है। कई ऐसे अस्पताल हैं, जिनमें बायोमेडिकल कचरे को साधारण कचरे के साथ कूड़ाघर में डाल रहे हैं। जो बहुत बड़ी चिंता की बात है। उससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि इन अस्पतालों की प्रबंधन कमेटियाँ निजी कम्पनियों से बायोमेडिकल वेस्ट के सुरक्षित निस्तारण का करार तो कर लेती हैं, लेकिन इसकी अच्छी तरह से निगरानी न करने से वे कम्पनियाँ लापरवाही से काम करती हैं और यह लापरवाही धीरे-धीरे और भी खतरनाक रूप लेती जा रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में सालभर में कुल 2,400 टन के आस-पास बायोमेडिकल कचरे का निपटारा किया जाता है। जिसमें से लगभग 800 टन नोएडा, लगभग 600 टन गुड़गाँव, लगभग 500 टन गाजियाबाद और करीब 350 टन फरीदाबाद में कचरा निकलता है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीपीसी) के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में रोजाना 60 टन बायोमेडिकल कचरा पैदा होता है। इसके निपटारे को और दक्ष बनाने के लिये दिल्ली सरकार प्लाज्मा टेक्नोलॉजी का संयंत्र लगाने की योजना भी बना रही है। फिलहाल दिल्ली के कॉमन बीएमडब्ल्यू संयंत्र 20 से 25 फीसदी की क्षमता पर कार्य कर रहे हैं। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने हाल ही में देश के 13,037 स्वास्थ्य सेवा केंद्रों की सूची जारी की है जिन्हें बायोमेडिकल कचरा उत्पादन एवं निबटान नियमों का उल्लंघन करते पाया गया है। ऐसी स्वास्थ्य इकाइयों की संख्या 2007-08 में 19,090 थी। मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश में रोजाना 4,05,702 किलोग्राम बायोमेडिकल कचरा पैदा होता है, जिसमें से 2,91,983 किलोग्राम कचरा ही ठिकाने लगाया जाता है। इस आंकड़े से इस बात की भी पुष्टि होती है कि रोजाना 1,13,719 किलोग्राम कचरा नष्ट नहीं किया जाता और वह अनिवार्य रूप से स्वास्थ्य प्रणाली में वापस आ जाता है। सुभाष चंद्र बोस पी० जी० कालेज की निदेशक डॉ० मंजु आनन्द ने कहा कि आंकड़े यह भी बताते हैं कि नियमों का उल्लंघन करने वाली सबसे ज्यादा मेडिकल इकाइयां महाराष्ट्र और बिहार में हैं। मात्रा के हिसाब से देखें तो जिन राज्यों में सबसे ज्यादा बायोमेडिकल कचरा निकलता है, वे हैं कर्नाटक (लगभग 62,241 किलोग्राम), उत्तर प्रदेश (लगभग 44,392 किलोग्राम) और महाराष्ट्र (लगभग 40,197 किलोग्राम)। कर्नाटक में नियमों का सबसे ज्यादा उल्लंघन होता है, क्योंकि वह रोजाना 18,270 किलोग्राम मेडिकल कचरे को ठिकाने नहीं लगा पाता। महाराष्ट्र का दावा है कि वह पूरे बायोमेडिकल कचरे को ठिकाने लगा देता है, इसके बावजूद उसके यहाँ कानून का उल्लंघन करने वाली स्वास्थ्य इकाइयां हैं। बिहार में रोजाना सिर्फ 3,572 किलो बायोमेडिकल कचरा पैदा होता है जो बड़े राज्यों की तुलना में न्यूनतम है जबकि निपटारा नियमों का उल्लंघन करने वालो राज्यों में उसका तीसरा स्थान है। इसका मतलब यह है कि बिहार में बड़ी संख्या में स्वास्थ्य सेवा केंद्र ऐसे हैं, जो नियमों का पालन नहीं करते। उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता सैय्यद् इमाम अली ने कहा कि वैसे तो 1998 के बायोमेडिकल कचरा (प्रबंधन और निपटान) नियमों के मुताबिक, बायोमेडिकल कचरा पैदा करने वाले स्वास्थ्य सेवा केंद्रों के लिये यह पक्का करना अनिवार्य है कि कचरे के प्रबंधन से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर किसी तरह का प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। लेकिन ऐसा कभी-कभार ही होता है। फरवरी 2009 में गुजरात के मेडासा कस्बे में वायरल हेपिटाइटस की वजह से कई लोगों की मृत्यु हो गई। स्वास्थ्य विभाग की जाँच के अनुसार, बायोमेडिकल कचरे को ठीक से ठिकाने न लगाए जाने की वजह से घातक वायरस फैला जिससे कई लोगों की जान गई। डॉ० विनीता सिंह ने बताया कि बायोमेडिकल कचरे में तरह-तरह के अपशिष्ट होते हैं, उन्हें नष्ट करने के तरीके भी अलग-अलग होते हैं। लेकिन नष्ट करने से पहले भी उन्हें कुछ प्रक्रियों से गुजारना होता है ताकि उनसे कोई इंफेक्शन न फैल सके। विभिन्न प्रकार के अपशिष्टों को नष्ट करने से पहले रोगाणुओं से मुक्त करना चाहिए। सेन्ट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की गाइडलाइन में भी स्पष्ट निर्देश है कि बायोमेडिकल वेस्ट रोज नष्ट कर दिए जाने चाहिए। इसके लिये सिरिंज, सूइयाँ एवं बोतलों आदि को ऑन द स्पाट डिस्पोज करके यानि उपयोग के तुरंत बाद नष्ट करके अलग-अलग थैलियों में डालकर डिपो तक पहुँचाना चाहिए। इसके विपरीत हकीकत यह है कि अस्पताल के वार्डों व ऑपरेशन थिएटरों के कचरे को खुली ट्रॉलियों के माध्यम से ले जाया जाता है। इनमें से रक्त तथा अन्य कचरा रास्ते में भी गिरता जाता है, इससे अस्पताल में मरीजों व उनके परिजनों में संक्रमण फैलने की संभावना बनी रहती है। जब प्लास्टिक अपशिष्ट का निपटान करना हो तो प्लास्टिक अपशिष्ट को नष्ट करने से पहले कटर से काटकर एक प्रतिशत ब्लीचिंग पाउडर सोल्यूशन में एक घंटे तक रखा जाता है। ताकि वह रोगाणुओं से मुक्त हो जाए। इसी तरह यदि तरल अपशिष्ट हो तो उस पर समान मात्रा में ब्लीचिंग पाउडर का घोल डालकर 30 मिनट तक रखा जाना चाहिए और उसके बाद नष्ट करना चाहिए। डॉ० आर० के० सिंह ने कहा कि इस्तेमाल करने के बाद बची खून की थैलियों और खराब हुई खून की थैलियों को नष्ट करने से पहले उनमें छेद करके उन्हें 5 प्रतिशत सोडियम हाइपोक्लोराइट विलयन में एक घंटे तक रखा जाना चाहिए। बायोमेडिकल वेस्ट के नियमों का उल्लंघन करने वालों की सूची स्थानीय राज्य सरकारों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास होती है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को दोषी पाए जाने वाले अस्पतालों चाहे वे सरकारी हों व निजी अस्पताल या फिर नर्सिंग होम हो, इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। राज्य सरकारों को भी इसके लिये ठोस कदम उठाना अपनी प्राथमिकता में शामिल करना चाहिए। समय रहते यदि इस पर कोई दीर्घकालिक और टिकाऊ योजना नहीं बनायी गयी, तो हर शहर और गली-कूचे की हालत नरक से भी बदतर हो जाएगी। हम नयी-नयी बीमारियों को बुलाएंगे और उनके इलाज में अपना जीवन खपाएंगे। जिला विज्ञान क्लब के इँ० आर० के० जौहरी ने बताया कि बायोमेडिकल कचरे के उचित निपटान एवं प्रबंधन में हमारी और आपकी भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके लिये हम निम्न बातों को अपना कर इस बायोमेडिकल कचरे से खुद को और अपने पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं : कार्यक्रम में मुख्यत: महादेव प्रसाद यादव, इ० आर० के० जौहरी, कुंवर दिव्यांश सिंह, समृद्धि कुंवर, गंगा मेमोरियल गर्ल्स पी० जी० कालेज की विभागाध्यक्ष डॉ० विनीता सिंह, डॉ० नीरज कुमार वर्मा, डॉ० राकेश कुमार, के० के० शुक्ला, पवन कुमार तिवारी, आयुष्मान आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए तथा लगभग 150 छात्र छात्राओं को बिभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया इस अवसर पर विभिन्न विद्यालयों के लगभग 850 छात्रों, शिक्षकों एवं अभिवावकों ने प्रतिभाग किया। |