नयी दिल्ली, कोरोना के कारण दुनिया भर में हुए लॉकडाउन के दौरान लाखों लोगों को मनोवैज्ञानिक संकट से उबारने में भूले बिसरे कव्वालों एवं सूफियों के कलामों ने भी मदद की है तथा इन कलामों ने उन्हें हताशा और निराशा को दूर कर उनमें मोहब्बत और अमन का पैगाम पहुंचाया है।
हिंदी उर्दू को दुनिया भर में ऑनलाइन फैलाने के काम मे समर्पित संस्था ‘रेख्ता फाउंडेशन’ के ‘सूफ़ीनामा’ वेबसाइट को अब तक 202 देशों के लोगों ने देखा है। हर रोज औसतन करीब 37 मुल्कों के आठ हजार से अधिक लोग इन कलामों को पढ़ने आ रहे है और इसके फेसबुक पेज पर हर माह करीब डेढ़ लाख लोग इनके कलामों से गहरा सुकून और आनंद हासिल कर रहे हैं। इस हिसाब से करीब 15 लाख से अधिक लोगों ने लॉकडाउन में सूफियों और कव्वालों के बारे में जाना उनके कलाम पढ़े और देखे।
दुनिया मे उर्दू के सबसे पोर्टल ‘रेख्ता’ के ‘सूफ़ीनामा’ नामक डिजिटल प्लेटफॉर्म ने कोरोना काल मे साम्प्रदायिक सद्भाव , प्रेम और भाईचारे का भी सन्देश देने का काम किया है। ‘रेख्ता’ की वेबसाइट पर 160 देशों के करीब एक लाख लोग रोज देखते हैं।
‘सूफ़ीनामा’ के संपादक सुमन मिश्र ने यूनीवार्ता को बताया कि सूफियों और कव्वालों ने हमेशा लोगों के दिल पर राज करते हुए उन्हें मानसिक शांति दी है और आध्यत्मिक बनाया है। मृत्यु से लड़ने का सन्देश दिया है। कोरोना काल में हताश लोगों के लिए सम्बल बने हैं कलाम।
उन्होंने बताया कि दो साल के भीतर सूफ़ीनामा के 41 हज़ार फ़ॉलोवर ट्विटर पर हैं जिनमें 20 हज़ार तो लॉकडाउन में बने हैं। उन्होंने कहा , “ हम दुनिया भर में मोहब्बत और अमन का पैगाम सोशल मीडिया के जरिये फैला रहे हैं तथा इसके लिए सूफियों और भूले बिसरे कव्वालों के कलाम को डाल रहे हैं। इन भूले बिसरे कलामों के सौ से अधिक रोचक किस्से हमने ब्लॉग पर अधिक पोस्ट किये हैं। हम लोग फेसबुक , इंस्टाग्राम , ट्विटर सब जगह इसे रोज फैला रहे हैं।”
हिंदुस्तानी सूफी कलाम संग्रह ‘गुलदस्ता-ए-कव्वाली’ के सम्पादक सुमन मिश्र ने बताया कि कहा जाता है कि सूफ़ी शब्द सब से पहले 816 के करीब सीरिया के शाम के निवासी हज़रत अबू हाशिम के लिए प्रयुक्त हुआ था । इस तरह वे पहले सूफी हुए जबकि हज़रत दाता गंज-बख़्श, जिनकी दरगाह लाहौर में स्थित है, को हिंदुस्तान का पहला सूफ़ी माना जाता है। ख़्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती इनके बाद आये थे।
उन्होंने बताया कि हिंदी और उर्दू के बीच पुल बनाने में संतों और सूफ़ियों का बहुत बड़ा योगदान है लेकिन इस पर बहुत काम नहीं हुआ। हमने इस कार्य को एक चुनौती की तरह लिया और कुछ वर्षों के अथक प्रयासों के बाद सूफ़ीनामा वेबसाइट दिसम्बर 2018 में लांच की गयी जिसमें सूफ़ी भक्ति परंपरा के प्रतिनिधि सूफ़ी संतों का साहित्य ऑनलाइन प्रस्तुत किया गया। आठ सौ से आधी सूफियों और कव्वालों के कलाम हमने डाले है।
उन्होंने बताया कि ‘तसव्वुफ़’ हालांकि स्वयं एक विषय है और मुग़ल काल तक सूफ़ी ख़ानक़ाहों में इसे बतौर एक विषय ही पढ़ाया जाता रहा है लेकिन धीरे धीरे ख़ानक़ाहों का स्थान मदरसों ने ले लिया और तसव्वुफ़ एक विषय न होकर अन्य विषयों का एक हिस्सा भर रह गया। सूफ़ीनामा में हमने इसके हर आयाम पर कार्य करने की कोशिश की है.
श्री मिश्र ने बताया कि सूफी साहित्य में जहां दारा शुकोह की मजमा उल बहरैन हिंदी में अनुवाद के साथ उपलब्ध है वहीं योग पर फ़ारसी भाषा में लिखी गयी पहली किताब बह्र उल हयात का हिंदी अनुवाद भी सूफ़ीनामा पर उपलब्ध है। दारा शुकोह की बाबा लाल बैरागी के साथ हुई वार्ता के अंश भी सूफ़ीनामा पर उपलब्ध हैं।
उन्हाेंने कहा , “ हम आम ज़िन्दगी में सूफ़ियों द्वारा प्रदत्त कई चीज़ें उपयोग में लाते हैं परन्तु हमें उसका पता नहीं होता। उदहारण स्वरुप- जो कॉफ़ी हम पीते हैं उसका इस्तेमाल सब से पहले सूफ़ियों ने ही किया था। हम उनके मुहावरे प्रयोग में लाते है – उदाहरनार्थ – अभी दिल्ली दूर है – (हज़रत निजामुद्दीन औलिया,) हम उनकी कहानियां पढ़ते हैं (हीर-रांझा, लैला-मजनू, सैफ़-उल-मलूक आदि) हम उनके गीत व्याह शादियों में गाते है –(काहे को व्याही बिदेस- अमीर ख़ुसरो ) और उनके परिधान( बेल्ट, ट्राउज़र आदि ) पहनते है।
उन्होंने कहा , “ सूफ़ी नामा पर हमने सूफियों के इन रंगों को एक जगह समेटने का प्रयास किया है। आपको सूफ़ी मुहावरे, सूफ़ी प्रतीक और सूफ़ी कहानियों का जहां एक विशाल संग्रह मिलेगा , वहीं भक्ति आन्दोलन से जुड़े संतो की वाणी भी सूफ़ीनामा पर उपलब्ध है। कश्मीर के संतों से लेकर मराठी संतों तक और ईरान के सूफ़ी कवियों से लेकर हिंदुस्तान के सैकड़ों सूफ़ी शायर आप को सूफ़ीनामा पर मिल जायेंगे।
उन्होंने बताया कि हमने नागरी प्रचारिणी, हिन्दुस्तानी, सरस्वती, निज़ामउल मशायख़ आदि पत्रिकाओं में छपे सूफ़ी संतों से संबंधित लेखों को एक जगह संरक्षित कर दिया है। सूफ़ीनामा ब्लॉग भी सूफ़ीनामा का एक प्रयास है जहाँ 230 के करीब लेख सूफ़ी संतों को समर्पित हैं।
उन्होंने कहा कि क़व्वाली तसव्वुफ़ का एक अभिन्न अंग रही है पर यह विधा भी धीरे धीरे उपेक्षा का शिकार होती गयी है और आम जन तथा लोक में प्रचलित होने के वावजूद क़व्वाली का कोई लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है। यह बीड़ा भी रेख़्ता फाउंडेशन ने उठाया और क़व्वाली का एक वृहद् संग्रह पहली बार सूफ़ीनामा से हिंदी में प्रकाशित हुआ। आठ सौ पृष्ठों और दो खण्डों में प्रकशित यह किताब न सिर्फ क़व्वाली के स्वर्णिम अतीत को चित्रित करती है बल्कि इसे एक विधा के रूप में भी स्थापित करती है। ऑनलाइन भी क़व्वालियों का एक बड़ा संग्रह सूफ़ीनामा पर उपलब्ध है जो पढ़ा – सुना जा सकता है। प्रमुख सूफ़ी शायरों का कलाम हिंदी में प्रकाशित करने की योजना पर भी कार्य चल रहा है जो जल्द ही मंज़र-ए-आ’म पर होगा।
उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया पर सूफीनामा की उपस्थिति है। कुछ महीने पहले सूफ़ीनामा का पहला प्रोग्राम भी ऑनलाइन आयोजित किया गया। हज़रत अमीर ख़ुसरो के उर्स को पहली बार सूफ़ीनामा ने ‘ख़ुसरो दरिया प्रेम का’ के नाम से मनाया जिसे ऑनलाइन विभिन्न प्लेटफार्म पर करीब 40,000 लोगों ने देखा। इस आयोजन में देश भर के करीब 20 क़व्वालों ने हिस्सा लिया था और क़व्वाली के साथ साथ दास्तानगोई भी प्रस्तुत की गयी थी। इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले कुछ प्रमुख क़व्वालों में राजू मुरली क़व्वाल, शाहिद नियाज़ी क़व्वाल, वारसी बंधु, दानिश बदायूनी, ट्रेडिशनल निज़ामी क़व्वाल आदि प्रमुख थे। इस सिलसिले को आगे भी ज़ारी रखा जायेगा।