Breaking News

जजों की नियुक्तियों में वंचित वर्गों को भी प्रतिनिधत्व दे सरकार

लखनऊ, इन दिनों केंद्र कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच अपने-अपने अधिकारों को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है। केंद्र सरकार उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियां आयोग के जरिये करना चाहती है और जबकि सुप्रीम कोर्ट जजों के लिए कोलेजियम सिस्टम के जरिये ही जजों की नियुक्ति की व्यवस्था में किसी भी तरह के बदलाव के खिलाफ है। यही वजह है कि केंद्र सरकार और न्यायपालिका जजों की नियुक्ति सम्बन्धी अपने अधिकारों को लेकर एक-दूसरे के सामने हैं, लेकिन इसमें सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि देश भर के किसी भी राज्य के उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में दलित और पिछड़ा वर्ग के जजों की संख्या ना के बराबर है और इन वर्गों को न्यायपालिका में भागीदारी देने के लिए केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय दोनों ही गंभीर नहीं हैं। यही वजह है कि आजादी के 75 साल बाद भी लगभग सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों में सामाजिक और आर्थिक आधार पर सताए गए वंचित समाज का प्रतिनिधित्व लगभग शून्य है। इन वर्गों का इनकी आबादी के मुताबिक न्यायपालिका में भी उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए केंद्र सरकार को पहल करनी चाहिए, ताकि न्यायपालिका में भी इन वर्गों को भागीदारी मिल सके।

केंद्र सरकार को न्यायपालिका में दलित और पिछड़ा वर्ग की भागीदारी बढाने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक सेवा आयोग का गठन करना चाहिए, जिससे इन वर्गों को भी संविधान में प्रदत्त आरक्षण के मुताबिक उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में जज बनने का मौका मिल सके। न्यायपालिका में अपने वर्चस्व को बढाने के लिए केंद्र सरकार जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियां आयोग बनाकर जजों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के प्रभाव को ख़त्म करना चाह रही है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान जजों की नियुक्ति के लिए सरकार के आयोग को निष्प्रभावी करते हुए कोलेजियम सिस्टम को बहाल रखा, इसके बाद से केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच विवाद बढ़ता ही जा रहा है और सरकार अपने अधिकारों की बरकरार रखने को लेकर लगातार न्यायपालिका के खिलाफ हमलावर है, लेकिन दोनों ही उच्च न्यायपालिका में सदियों से सामाजिक और आर्थिक आधार पर कमजोर दलित और पिछड़ा वर्ग के लोगों को मौका देने के पक्ष में नहीं दिख रहे हैं।

दरअसल केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही न्यायपालिका में आरक्षण दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं, यही वजह है कि जजों के चयन के लिए भारतीय न्यायिक सेवा आयोग के गठन पर कोई बात नहीं हो रही है, दोनों पक्ष जजों की नियुक्ति में अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं, यदि भारतीय न्यायिक सेवा आयोग का गठन हो गया तो जजों की नियुक्ति को लेकर वर्ग विशेष का वर्चस्व ख़त्म हो जायेगा और न्यायिक सेवा आयोग के जरिये दलित और पिछड़ा वर्ग के जज हाई कोर्टों में नियुक्त होने लगेंगे, सरकार भी उच्च न्यायिक सेवाओं में इन वर्गों की तैनाती की पक्षधर नहीं है। राज्यों में हायर जुडिशियल सर्विसेस में चयन सीधे हाई कोर्ट अपने स्तर से करता है जिसमें सीधे अपर जिला जज की नियुक्ति होती है, इस सेवा में आरक्षण व्यवस्था भी लागू है, लेकिन बावजूद इसके इस सेवा में भी दलित और पिछड़ा वर्ग के अभ्यर्थियों का चयन नहीं हो पा रहा है, यहाँ आरक्षण के मुताबिक दलित और पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों के चयन को लेकर राज्य या केंद्र सरकार ने अभीतक कोई पहल भी नहीं की है। इन पदों पर हाई कोर्ट ही परीक्षा से लेकर चयन प्रक्रिया पूरा करती है, लेकिन इस सेवा में भी जहाँ आरक्षण की व्यवस्था लागू है बावजूद इसके अपर जिला जज की नियुक्ति में अभी तक आरक्षण का कोटा पूरा नहीं किया गया है, इन सेवाओं में भी प्रत्येक चयन में दलित व पिछड़े वर्ग के एकाध लोगों का ही चयन हो पाता है।

इस मामले में सामाजिक संस्था बहुजन भारत के अध्यक्ष एवं पूर्व आईएएस कुंवर फ़तेह बहादुर का कहना है कि एक अँग्रेजी दैनिक में प्रकाशित खबर के अनुसार केंद्रीय विधि मंत्रालय द्वारा संसद की स्थायी समिति के समक्ष रखे गए तथ्यों के अनुसार 2018 से 2022 तक पिछले चार वर्षों में हाई कोर्टों में कुल 537 न्यायधीश नियुक्त किये गए, जिनमें 2.8 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 1.3 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति, 11 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग तथा 2.6 प्रतिशत अल्पसंख्यक समुदाय से जजों की नियुक्ति की गयी है। नियुक्त किये गए जजों में से 20 जज किस समुदाय से हैं ज्ञात नहीं है इसके अतिरिक्त बाकी 79 प्रतिशन जज ऊँची जातियों से नियुक्त किये गए हैं। इससे स्पष्ट है कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में अनुसूचित जाति, जनजाति आदि समुदायों का प्रतिनिधित्व ना के बराबर है, चूँकि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है फिर भी सामाजिक न्याय को ध्यान में रखकर सर्वोच्च न्यायालय व केंद्र सरकार की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे अन्य सरकारी सेवाओं की भांति उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में भी इन वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करें।

वरिष्ठ पत्रकार, कमल जयंत