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चौपाल पर हर शाम रस घोलने वाली बुंदेली लोकसंगीत की सुरमयी मिठास अब कहां?

झांसी , पाश्चात्य संगीत के बढ़ते प्रभाव के चलते बुंदेलखंड की संस्कृति का पर्याय माने जाने वाली लाेकगायन की मिठास फिजां से लुप्त होती जा रही है।

तीन दशक पहले तक खेती बाड़ी का काम निपटा कर गांव की चौपाल पर हर शाम जमा होने वाले ग्रामीण अपनी थकान वीररस से भरपूर लोकसंगीत का लुफ्त उठाकर मिटाते थे वहीं पेड़ों पर पड़े झूलों पर बच्चे किलकलारी मारते हुये पींग मारते नजर आते थे। खुशी का मौका हो या गम भुलाने की तरकीब, लोकगायन उनके लिये टानिक का काम करता था। लोकसंगीत की मिठास से भरपूर निराली दुनिया में बुंदेलखंड की संस्कृति भी अमिट छाप साफ दिखती थी लेकिन मोबाइल और इंटरनेट की ग्रामीण इलाकों में पहुंच ने युवा वर्ग को उन्हे इस अनूठी परंपरा और संस्कृति से दूर कर दिया है।

चौपालों में अब महफिलें नहीं सजती हालांकि कुछ बहुत बुजुर्ग कमर झुकाये अपनी समस्यायों को साझा करते देखे जा सकते है। लोकगायन की अनूठी परंपरा को लगभग विराम लग चुका है। शोरशराबे से भरपूर पाश्चात्य संगीत सदियों पुराने लोकसंगीत को लगभग लील चुका है। यही कारण है पारंपरिक वाद्य यंत्र जैसे झीका, मटका ,पखावज ,डफला, रमतूला, अलगोजा और पारंपरिक गायन तथा नृत्य की विधाओं का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है।

आधुनिकता की होड़ और विलासितापूर्ण जीवन जीने के लिये अधिक पैसा कमाने की लालसा ने इंसान को पुरखों की विरासत लोक संस्कृति से दूर कर दिया है। जीवन के हर रंग को खूबसूरती के साथ जीने की कला सिखाने वाली लोक संस्कृति पिछड़ती चली जा रही है।