लखनऊ, यूपी में विपक्ष की भूमिका निभा रहीं कुछेक राजनीतिक पार्टियाँ सत्तारूढ़ भाजपा की जगह समाजवादी पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। कुछ सालों की मेहनत में ही अपनी विचारधारा से देश के 85 फीसदी बहुजन समाज जिनमें दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज शामिल है को जोड़कर बसपा ने कांशीराम जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय पार्टी का मुकाम हासिल कर लिया था, लेकिन जिस तरह से मौजूदा बसपा नेतृत्व ने अपने को पार्टी की मूल विचारधारा से अलग किया है, उसके बाद से लेकर अबतक पार्टी लगातार पतन की ओर बढ़ रही है, हाल ही में यूपी में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा अपने सबसे कमजोर प्रदर्शन की वजह से 403 में से एक सीट पर सिमट गयी, जबकि 11 साल पहले बसपा यूपी में पूर्ण बहुमत से सत्ता में थी, लेकिन पार्टी के जनाधार को बढाने या अपनी मूल विचारधारा में वापसी की खातिर बहुजन समाज के हितों के लिए सड़क पर उतरकर संघर्ष करने के बजाय नेतृत्व समाजवादी पार्टी का मुखर होकर विरोध करने में जुट गया है। राज्य में चार बार सत्ता में रही बसपा लम्बे समय से सत्तारूढ़ दल भाजपा का विरोध करने के नाम पर मुख्य रूप से सपा और कांग्रेस का ही विरोध कर रही है। शायद बसपा नेतृत्व को इस बात की उम्मीद है कि राज्य में सपा के कमजोर प्रदर्शन का फायदा चुनाव में बसपा को मिलेगा और मुस्लिम व अन्य समाज का वोट भाजपा को हराने के लिए सपा के बजाय एक बार फिर बसपा की तरफ आकर्षित होगा और अगले विधानसभा चुनाव में बसपा दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे सत्ता में वापसी कर लेगी। यही वजह है कि बसपा राज्य में हुए विधानसभा व लोकसभा के उपचुनाव में खुद को मजबूत करने के बजाय सपा के कमजोर होने का इंतज़ार करती रही।
बसपा के मौजूदा नेतृत्व की उपेक्षा के कारण डॉ. सोनेलाल पटेल ने बसपा से अलग होकर अपना दल और राजभर ने सुभासपा का गठन किया। इसके अलावा अन्य तमाम नेता दूसरे दलों में शामिल हो गए, हालाँकि सोनेलाल जी के निधन के बाद पार्टी दो फाड़ हो गयी और एक अपना दल एस अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व में भाजपा के साथ है, जबकि राजभर यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ थे और हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में सपा के साथ थे, लेकिन इन दिनों सपा के विरोध में मुखर होकर उतर आये हैं। ओमप्रकाश राजभर किन कारणों के चलते विधानसभा चुनाव के ठीक बाद सपा के विरोध में उतरे इसको लेकर सियासी गलियारों में अलग-अलग चर्चाएँ हैं, हो सकता है लोकसभा चुनाव से पहले वह अपना साथी बदल लें और किसी अन्य दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ें, लेकिन बसपा तो राज्य में सरकार बनाने की प्रबल दावेदार रहती है, ऐसे में बसपा नेतृत्व का सत्तारूढ़ दल भाजपा के बजाय सपा का विरोध करना कई तरह के सवाल खड़े कर रहा है।
बसपा के जनाधार की बात की जाय तो पार्टी के कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक कार्यकर्त्ता थे। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत के राज्यों में पार्टी का मजबूत जनाधार था, अधिकांश राज्यों में पार्टी के विधायक भी रहे, लेकिन देखते ही देखते यूपी के आलावा बाकी सभी राज्यों में बसपा के जनप्रतिनिधियों का चुनकर आना बंद हो गया और वोट के प्रतिशत में भी काफी गिरावट आ गयी। अगर यूपी की बात की जाये तो यहाँ भी वोट प्रतिशत 27 फीसदी से घटकर 13 प्रतिशत से भी कम रह गया। हाल ही में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भी बसपा का अबतक का सबसे ख़राब प्रदर्शन रहा, बसपा ने हिमाचल प्रदेश में 55 और गुजरात में 44 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, हालाँकि सीट जीतना तो दूर गुजरात में बसपा को महज 0.50 प्रतिशत वोट ही मिले, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को गुजरात में 0.70 प्रतिशत वोट मिले थे। हिमाचल प्रदेश में पार्टी को 0.35 प्रतिशत वोट मिले जबकि 2007 में यहाँ पार्टी ने एक विधायक की सीट जीती थी और सात प्रतिशत से अधिक वोट भी मिला था। पिछले दिनों दिल्ली, उत्तराखंड, पंजाब राज्य में भी पार्टी की हालत काफी दयनीय रही है, तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद यूपी में पार्टी के साथ अब भी लगभग 13 प्रतिशत वोट है जो उनका आधार दलित वोट माना जा रहा है, लेकिन इसको पार्टी से जोड़े रखने के लिए भी कोई रणनीति तैयार करने के बजाय राज्य में प्रमुख विपक्षी दल सपा के विरोध में बसपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक राखी है।
भाजपा का विरोध करने के बजाय सपा का विरोध करने के पीछे बसपा की क्या रणनीति हो सकती है। इस मामले में सामाजिक संस्था बहुजन भारत के अध्यक्ष एवं पूर्व आईएएस कुंवर फ़तेह बहादुर का कहना है कि पार्टी नेतृत्व राज्य के मुख्य विपक्षी दल का विरोध क्यों कर रहीं हैं, इसके पीछे उनकी क्या कार्ययोजना हो सकती है, ये तो बसपा के बड़े नेता ही बता सकते हैं, उनका कहना है कि देश और प्रदेश स्तर पर सियासी दल कांग्रेस, सपा, राष्ट्रीय जनता दल, आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस जनसमस्याओं को लेकर सड़क पर उतरकर संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन बसपा पीड़ितों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ केवल ट्विटर पर बयान देकर यह मान रही है कि उनके ट्वीट करने से वंचितों को न्याय मिल जायेगा, लेकिन इससे पीड़ितों को न्याय नहीं मिलेगा इसके लिए पार्टी नेतृत्व को कार्यकर्ताओं को आन्दोलन के लिए सड़क पर उतरने की अनुमति देनी होगी। अपने स्वाभाव के अनुकूल बसपा नेतृत्व कभी भी उप चुनाव नहीं लड़ता रहा है, लेकिन हाल ही में आजमगढ़ लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में बसपा ने अपना मुस्लिन प्रत्याशी मैदान में उतारा जिसका सीधा लाभ भाजपा को ही मिला। इससे यह साफ़ है कि बसपा खुद जीतने के लिए नहीं बल्कि भाजपा को जिताने के लिए चुनाव मैदान में उतर रही है, ये हाल ही में हुए यूपी विधानसभा के चुनाव में भी देखने को मिला। लिहाजा बहुजन समाज के हितों की रक्षा के लिए दलितों, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज को एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ मजबूती से लड़ रहे दल को सहयोग करना होगा।
कमल जयंत-वरिष्ठ पत्रकार