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कुशा के बिना श्राद्ध कर्म, तर्पण, पिंडदान अधूरा

प्रयागराज, पितरों की आत्मा की शांति और मुक्ति के लिए पितृपक्ष के दौरान किया गया श्राद्ध कर्म, तर्पण, पिंडदान आदि कार्य कुशा के बिना अधूरा माना गया है।

कुशा की उत्पत्ति और महत्व का विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण और गरूड़ पुराण, अथर्ववेद, ऋग्वेद, महाभारत, पौराणिक कथा और अन्य धर्म ग्रंथों में धार्मिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक गुणों के साथ कर्मकाण्ड में इसकी उपयोगिता को बताया गया है। पितृपक्ष के दिनों में पितरों के श्राद्ध कर्म सभी क्रियाएं पवित्र कुशा के आसन पर बैठकर ही की जाती हैं। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से शुरू हुआ पितृ पक्ष सर्वपितृ अमावस्या तक चलता है।

धर्मग्रंथों में बताया गया है कि किसी भी धार्मिक अनुष्ठानों में जमीन पर कुशा का आसन पर बैठकर पूजा-पाठ आदि कर्मकांड करने से इंसान के अंदर जमा आध्यात्मिक शक्तिपुंज का संचय पृथ्वी में न/न प्रवेश करे, उसके लिए कुश का आसन विद्युत कुचालक का काम करता है। आसन के कारण पार्थिव विद्युत प्रवाह पैरो से शक्ति को बाहर नहीं जाने देता।

पवित्र कुशा की उत्पत्ति को लेकर अलग अलग मत मतांतरण हैं। विष्णु पुराण , मत्स्य पुराण में बताया गया है कि जब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया था, तब उन्होंने हिरण्याक्ष राक्षस का वध किया और पृथ्वी को समुद्र से निकाला था। इसके बाद उन्होंने अपने शरीर पर लगे पानी को झाड़ा जिससे उनके बाल पृथ्वी पर गिरे और कुशा घास बन गई। गरूण पुराण में भी एक कहानी है। एक अन्य कहानी में ब्रह्मा ने वृत्रासुर राक्षस को हराने के बाद, अछूते जल निकायों को कुश घास में बदल दिया था। समुद्र मंथन तथा मान्यताओं के आधार जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो श्री राम ने दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई, बताया जाता है।