हिंदी सिनेमा में साइकोलॉजिकल थ्रिलर जॉनर फिल्ममेकरों को भाता रहा है। उसमें खंडित शख्सियत को केंद्र में रखकर चुनिंदा फिल्में बनी हैं। मिरर गेम्स अब खेल शुरू का नायक भी अवसाद और खंडित शख्सियत से जूझता है। कहानी की शुरुआत नौवें दिन से होती है। प्रोफेसर जय वर्मा जहर पी कर जान देने की बात करता है। फिर कहानी फ्लैश बैक में चलती है। शुरुआत नौ दिन में घटित घटनाक्रम से होती है। जय वर्मा न्यूजर्सी में साइकोलॉजिकल प्रोफेसर है।
वह निजी और प्रोफेशनल जिंदगी में परेशानियों से जूझ रहा है। दो साल पहले उसका एक शोधार्थी आत्महत्या कर लेता है। उसका इल्जाम प्रोफेसर पर लगता है। वह डिप्रेशन में चला जाता है। उसका इलाज चल रहा है। बीवी का किसी और से अफेयर होता है। वह उससे तलाक चाहती है। प्रोफेसर उसके लिए राजी नहीं है। प्रोफेसर के पास एक महत्वाकांक्षी शोधार्थी रॉनी आता है। जय उसके शोध कार्य से प्रभावित होता है। वह उसकी रिसर्च में मदद का वादा करता है।
बदले में अपनी बीवी के मर्डर की शर्त रखता है। अगले दिन जय की बीवी गायब हो जाती है। पुलिस प्रोफेसर पर शक करती है। वहां से कातिल की तलाश शुरू होती है। बतौर निर्देशक विजित शर्मा की यह पहली फिल्म है। वह इसके लेखक भी हैं। उन्होंने कहानी को रहस्यमय बनाए रखने का भरपूर प्रयास किया है। हालांकि निर्देशन में कसाव की कमी स्पष्ट झलकी है। फिल्म सिजोफ्रेनिया और मल्टीप्ल पर्सनालिटी डिसआर्डर जैसे गंभीर मुद्दे को उभारती है। इस मानसिक बीमारी का उपयोग फिल्म को रोमांचक बनाने की कोशिश में किया गया है। हालांकि उसमें वह नाकामयाब रहे हैं।
प्रोफेसर जय शातिर अपराधी की तरह षड्यंत्र रचते नजर आते हैं। वह भी तब जब उन्होंने अपनी दवाएं लेना बंद कर दिया है। जय के दिमाग में क्या चल रहा है उसका भी समुचित चित्रण नहीं हुआ है। कहानी न्यूजर्सी में सेट है। कुछ विदेशी कलाकार इसका अहम हिस्सा हैं। लिहाजा काफी डायलाग अंग्रेजी में हैं। उनका हिंदी में सबटाइटल्स देने की आवश्यकता नहीं समझी गई। साइकोलॉजिकल बीमारियों के बारे में समुचित जानकारी का अभाव खटकता है। यह फिल्म मुख्य रुप से प्रवीण डबास पर निर्भर करती है।
खंडित शख्सियत के शिकार जय को चित्रित करने में प्रवीण कमजोर पड़े हैं। वह डर, परेशानी और द्वंद्व में फंसे शख्स के भावों को पूरी तरह उकेर नहीं पाए हैं। पुलिस डिटेक्टिव शिनाय की भूमिका में स्नेहा रामचंदर हैं। स्नेहा की आंखें बहुत कुछ कहती हैं। हालांकि डायलाग वह सपाट तरीके से बोलती नजर आती हैं। रॉनी बने ध्रुव बाली अभिनय में कच्चे लगे। उनके चेहरे पर भावों की कमी अखरी। पूजा बत्रा मनोचिकित्सक पुलिस अधिकारी के किरदार में हैं। उनकी भूमिका संक्षिप्त है। वह भी प्रभावहीन लगी हैं। उनके किरदारों को सही से गढ़ा नहीं गया है। ओमी वैद्य की सहयोगी भूमिका है। अपने स्पेस का उन्होंने सदुपयोग किया है। कस्तूरी नाथ सिंह और विशाल जे सिंह का संगीत साधारण है। वह बैकग्राउंड को प्रभावी नहीं बनाता है। बाकी सहयोगी कलाकार खानापूर्ति करते दिखते हैं।