प्रयागराज, खुली आंखों से न दिखने वाले माइक्रान एवं नैनो साइज में प्लास्टिक के अदृश्य कण रक्तप्रवाह के माध्यम से मनुष्य के शरीर में पहुंचकर कैंसर जैसी घातक बीमारी को जन्म दे रहे हैं वहीं दूसरी ओर ये प्रदूषण समुद्र में बन रहे प्लास्टिग्लोमरेट (प्लास्टिक चट्टान) समुद्री जीवों और वनस्पतियों के लिए भी घातक साबित हो रहे हैं।
पद्मश्री पुरस्कृत एक्वाकल्चर वैज्ञानिक डॉ. अजय सोनकर ने कहा कि सिंगल यूज प्लास्टिक को प्रतिबंधित करना ही बड़ा कदम मानना पर्याप्त नहीं है, इसकी वास्तविक विभीषिका से हमें परिचित होना पड़ेगा। प्लास्टिक में बिस्फेनाॅल-ए(बीपीए)रसायन के अलावा पैलेडियम, क्रोमियम और कैडमियम जैसे धातुएं शामिल हैं जो मानव शरीर में पहुंचकर कैंसर को जन्म दे सकता है।
उन्होंने बताया कि प्लास्टिक प्रदूषण वैश्विक समस्या है। यह हमारे समुद्रों और प्राकृतिक दुनिया का दम घोंट रहा है।
अदृश्य प्लास्टिक कण समुद्री सीप के टिस्यू में पहुंचकर ट्यूमर का रूप ले रहा है। इसके घातक परिणामों को देखते हुए इसकी रोकथाम के लिए पूरी विश्व के लोगों को इसके उपयोग से दूरी बनाने और सरकार को इसपर रोक लगाने के निर्णय को लेकर कारगर कदम उठाना होगा।
डा सोनकर ने बताया कि देश में पहली बार अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में समुद्री जल की नियमित निगरानी के दौरान वर्ष 2023 में समुद्री जीवविज्ञानियों की एक टीम को एवीस द्वीप पर चट्टान का एक टुकड़ा मिला जिसकी पहचान ‘प्लास्टिग्लोमरेट ” (प्लास्टिक कण, रेत और अन्य सामग्रियों से बनी एक चट्टान) के रूप में की गयी। भारत में इस तरह की यह पहली खोज थी। संभव है इस तरह की चट्टानें पहले भी रही हों लेकिन उसकी पहचान नहीं की जा सकी। वैज्ञानिको ने कामिलो बीच, हवाई, इंडोनेशिया, अमेरिका, पुर्तगाल, कनाडा और पेरू में प्लास्टिग्लोमरेट्स पाए जाने की पुष्टि की है।
डाॅ़ सोनकर ने बताया कि दुनिया में बढ़ता प्लास्टिक कचरा अनगिनत समस्याओं की कारण बन रहा है। भारत में भी यह समस्या मौजूदा समय में विकराल रूप ले चुका है। सालाना 12 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में पहुंच रहा है। भूमि पर अनुचित तरीके से फेंका गया प्लास्टिक कचरा माइक्राॅन साइज में टूट कर आसानी से हमारे महासागरों सहित अन्य जल स्रोतों तक पहुँच रहा है। अदृश्य प्लास्टिक कण समुद्र के अंदर शैवाल में शामिल होकर जल जीवों के रक्त में पहुंच चुका है, शैवाल जलीय जीवों के भोजन शृंखला का पहला पायदान है, इस प्रकार मनुष्य सहित हर जीव के रक्त में इसका कण पहुंचना स्वाभाविक है।
एक्वाकल्चर वैज्ञानिक ने बताया कि वर्ष 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आधार पर अनुमान लगाया है कि भारत में प्रतिवर्ष लगभग 9.4 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, (जो प्रतिदिन 26,000 टन कचरे के बराबर है) जिसमें से लगभग 5.6 मिलियन टन प्लास्टिक कचरे का ही पुनर्चक्रण किया जाता है।
उन्होंने बताया कि भारत में पायरोक्लास्टिक चट्टानों का पाया जाना इस बात का सबूत है कि इंसानों द्वारा फैलाया गया प्लास्टिक कचरा भूवैज्ञानिक चक्र को भी प्रभावित कर रहा है। अध्ययन में अब तक छह प्लास्टिग्लोमरेट्, नौ पायरोप्लास्टिक और एक प्लास्टिक्रस्ट चट्टान मिले है। स्पेक्ट्रोस्कोपी ने पुष्टि की है कि ये चट्टानें पॉलीएथिलीन टेरिफ्थेलेट (पीईटी), पॉलीप्रोपाइलीन, पॉलीविनाइल क्लोराइड, पॉलीएमाइड और विभिन्न घनत्व वाले पॉलीइथिलीन जैसी प्लास्टिक सामग्री से बने हैं।
उन्होंने बताया कि प्लास्टिग्लोमरेट, प्लास्टिक कचरे और अन्य मलबे से बनी चट्टानें होती हैं। ये प्लास्टिक के वे टुकड़े होते हैं जो ताप के कारण पिघल कर अपना रूप बदल लेते हैं और जलने के कारण ये कचरा इस तरह का आकार ले लेते हैं। प्लास्टिक्रस्ट एक नया शब्द है, जिसका उपयोग प्लास्टिक के बने मलबे के लिए किया जाता है। यह मलबा शैवाल और अन्य समुद्री जीवों से ढक जाता है, और समुद्री वातावरण में चट्टानों या अन्य सतहों पर एक परत के रूप में दिखता है।
“काले मोती” का इजाद करने वाले प्रयागराज के वैज्ञानिक डॉ़ सोनकर ने बताया कि उन्होंने मलेशिया, सिंगापुर और कोस्टारीका जैसे अनेक स्थानों से समुद्री जल के नमूनों का परीक्षण किया तो इसमें माइक्राेन एवं नैनो आकार के प्लास्टिक कण मिले। ये सूक्ष्म कण हवा में तैरते हुए सांस के साथ फेफड़ों में पहुंचकर शरीर के भीतरी अंगों को नुकसान पहुंचाते हैं।