अशोक के वृक्ष से तो हम सभी परिचित हैं। अकसर इस वृक्ष को सजावट के लिए लगाया जाता है। 25 से 30 फुट ऊंचा यह वृक्ष आम के वृक्ष की तरह सदा हरा−भरा रहता है। संस्कृत में इसे हेमपुष्प ताम्र पल्लव आदि नामों से पुकारते हैं। यूं तो फारबीएसी जाति का यह वृक्ष देखने में सुदंर होता है साथ ही इसमें दिव्य औषधीय गुण भी होते हैं। अभी तक अशोक की दो किस्में ज्ञात हैं। पहले किस्म के अशोक की पत्तियां रामफल के वृक्ष जैसी तथा दूसरे किस्म के अशोक की पत्तियां आम की पत्तियों जैसी परन्तु किनारों पर लहरदार होती हैं। औषधीय प्रयोग के लिए ज्यादातर इसकी पहली किस्म का ही प्रयोग किया जाता है। दवा के रूप में अशोक की छाल, फूल तथा बीजों आदि का प्रयोग किया जाता है। चूंकि बगीचों में सजावट के लिए प्रयुक्त अशोक तथा असली अशोक के गुणों में बहुत अन्तर होता है इसलिए जरूरी है कि औषधि के रूप में असली अशोक का ही प्रयोग किया जाए।
असली अशोक की छाल स्वाद में कड़वी, बाहर से घूसर तथा भीतर से लाल रंग की होती है। छूने पर यह खुरदरी लगती है। आयुर्वेद के अनुसार अशोक का रस कसेला, कड़वा तथा ठंडी प्रकृति का होता है। यह रंग निखारने वाला, तृष्णा व ऊष्मा नाशक तथा सूजन दूर करने वाला होता है। यह रक्त विकार, पेट के रोग, सभी प्रकार के प्रदर, बुखार, जोड़ों के दर्द तथा गर्भाशय की शिथिलता भी दूर करता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, अशोक का मुख्य प्रभाव पेट के निचले हिस्सों पर पड़ता है। गर्भाशय के अलावा ओवरी पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। महिलाओं की प्रजनन शक्ति बढ़ाने में यह सहायक होता है। अशोक में कीटोस्टेरॉल पाया जाता है जिसकी क्रिया एस्ट्रोजन हारमोन जैसी होती है।
अनेक बीमारियों के निदान के लिए अशोक के विभिन्न भागों का प्रयोग किया जाता है। यदि कोई स्त्री स्नान के उपरांत स्वच्छ वस्त्र पहन कर अशोक की आठ नई कलियों का सेवन करे तो उसे मासिक धर्म संबंधी कष्ट कभी नहीं होता। साथ ही इससे बांझपन भी मिटता है। साथ ही अशोक के फूल दही के साथ नियमित रूप से सेवन करते रहने से भी गर्भ स्थापित होता है। अशोक की छाल में एस्ट्रिन्जेंट और गर्भाशय उत्तेजना नाशक संघटक विद्यमान हैं। यह औषधि गर्भाशय संबंधी रोगों में विशेष लाभ करती है। फायब्रायड ट्यूमर के कारण होने वाले अतिस्राव में यह विशेष रूप से लाभकारी है। अशोक की छाल के चूर्ण और मिश्री समान मात्रा में मिलाकर, गाय के दूध के साथ एक−एक चम्मच दिन में तीन बार कुछ हफ्तों तक लेने से श्वेत प्रदर में बहुत लाभ होता है।
रक्त प्रदर के लिए अशोक की छाल के काढ़े का प्रयोग किया जाता है इसे अशोक की छाल को सफेद जीरे, दालचीनी तथा इलायची के बीजों के साथ उबालकर बनाया जा सकता है। इसका सेवन भी दिन में तीन बार किया जाना चाहिए। होम्योपैथी के अनुसार, अशोक गर्भाशय संबंधी रोगों में विशेष रूप से लाभकारी है। गुर्दे का दर्द, मासिक धर्म के साथ पेट दर्द तथा मूत्र संबंधी रोगों में अशोक की छाल के मदर टिंक्चर का प्रयोग किया जाता है। अशोक के बीज पानी में पीसकर लगभग दो चम्मच मात्रा नियमित रूप से लेने पर मूत्र न आने की शिकायत दूर होती है। इससे पथरी के कष्ट में भी आराम मिलता है। अति रज स्राव की अवस्था में छाल का क्वाथ दिया जाता है। इसे बनाने के लिए अशोक की एक पाव छाल को लगभग चार लीटर पानी में उबालें। लगभग एक चौथाई पानी के शेष रहने पर उसमें लगभग एक किलो शक्कर डालकर उसे पकाएं। इस शरबत की लगभग दस ग्राम मात्रा को दिन में तीन−चार बार पानी के साथ लेने पर तुरन्त रक्त स्राव रुकता है।
रक्त स्राव यदि दर्द के साथ हो तो चौथे दिन से शुरू करके रज स्राव बंद न होने तक नियमित रूप से यह क्वाथ दिया जाना चाहिए। 45-50 वर्ष की आयु में स्त्रियों में जब रजोनिवृत्ति का संधिकाल आता है उस समय अशोक के संघटक हारमोन्स का संतुलन बिठाने का जटिल कार्य करते हैं। पान के साथ अशोक के बीजों का एक चम्मच चूर्ण चबाने से सांस फूलने की शिकायत नहीं रहती। अशोक की छाल के उबले ठंड़े काढे में बराबर मात्रा में सरसों का तेल मिलाकर मुहांसों तथा फोड़े−फुंसियों पर लगाने से ये शिकायत दूर हो जाती है। अशोक की छाल तथा ब्रह्मी के समभाग का एक चम्मच चूर्ण एक कप दूध के साथ नियमित रूप से लेने पर कुछ ही महीनों में बुद्धि की मंदता दूर हो जाती है।
खूनी बवासीर के निदान के लिए अशोक की छाल तथा उसके फूलों को समभाग मिलाकर एक गिलास पानी में भिगो दें। सुबह इस पानी को छानकर पी लें। इसी प्रकार सुबह भिगोए हुए मिश्रण को शाम को छानकर पी लें। इससे जल्दी ही लाभ मिलता है। अशोक की छाल में दो ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो अनैच्छिक मांस पेशियों को सिकोड़ता तथा ढीला करता है। इसके प्रयोग से गर्भाशय के संकुचन की दर बढ़ जाती है और यह सिकुड़न अन्य दवाइयों से हुए संकोचन के मुकाबले अधिक समय तक प्रभावी रहती है। साथ ही इसका कोई हानिकारक प्रभाव भी नहीं होता। नाड़ी संस्थान संबंधी सभी रोगों में इसका लेप तथा मुख मार्ग से इसका प्रयोग किया जाता है। साथ ही अतिसार तथा तेज ज्वर को दूर करने में भी इसका प्रयोग किया जाता है। यह एक अच्छा रक्त शोधक भी है। दवाई के रूप में प्रयोग करने के लिए अशोक की छाल को पौष या माघ महीने में इकट्ठा कर सूखी व ठंडी हवा में परिरक्षित रखा जाता है। जबकि इसके फूलों को वर्षा ऋतु में और कलियों को शरद ऋतु से पहले इकट्ठा करना चाहिए। इसके सूखे हुए भागों का चूर्ण छह माह से एक वर्ष तक प्रयोग किया जा सकता है।