नई दिल्ली, देश के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर की आज 127वीं जयंती है. इस मौके पर देश भर में तमाम कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं. बीजेपी, कांग्रेस, सपा, बसपा सभी राजनीतिक दल इस मौके पर विशेष आयोजन करा रहे हैं.
आज की राजनीति में भीमराव अंबेडकर ही एक मात्र ऐसे नायक हैं, जिन्हें सभी राजनीतिक दलों में उन्हें ‘अपना’ बनाने की होड़ लगी है. यह बात सही है कि अंबेडकर को दलितों का मसीहा माना जाता है, मगर यह भी उतना ही सही है कि उन्होंने ताउम्र सिर्फ दलितों की ही नहीं, बल्कि समाज के सभी शोषित-वंचित वर्गों के अधिकारों की बात की. उनके विचार ऐसे रहे हैं जिसे न तो दलित राजनीति करने वाली पार्टियां खारिज कर पाई है और न ही सवर्णों की राजनीति करने वाली पार्टियां.
भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महू नामक एक गांव में हुआ था. इनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल था. इनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में काम करते थे. ये अपने माता-पिता की 14वीं संतान थे. ये महार जाति से ताल्लुक रखते थे, जिसे हिंदू धर्म में अछूत माना जाता था. दरअसल, घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण इनका पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से हो पाया. इन परिस्थितियों में ये तीन भाई- बलराम, आनंदराव और भीमराव तथा दो बहनें मंजुला और तुलसा ही जीवित बच सके. सभी भाई-बहनों में सिर्फ इन्हें ही उच्च शिक्षा मिल सकी.
ऐसा कहा जाता है कि हिंदू धर्म में व्याप्त चतुष्वर्णीय जाति व्यवस्था के कारण इन्हें जीवन भर छुआछूत का सामना करना पड़ा. स्कूल के सबसे मेधावी छात्रों में गिने जाने के बावजूद इन्हें पानी का गिलास छूने का अधिकार नहीं था. बाद में इन्होंने हिंदू धर्म की कुरीतियों को समाप्त करने का जिंदगी भर प्रयास किया. हालांकि, कुछ जानकार यह भी कहते हैं कि जब इन्हें लगा कि ये हिंदू धर्म से कुरीतियों को नहीं मिटा पाएंगे, तब 14 अक्टूबर, 1956 में अपने लाखों समर्थकों सहित बौद्ध धर्म अपना लिया.
संविधान की नींव रखने वाले अंबेडकर आज की राजनीति के ऐसे स्तंभ हैं, जिन्हें कोई भी खारिज नहीं कर पाता है. यही वजह है कि आज अंबेडकर आज भी उतने ही प्रासंगिक नजर आते हैं. अंबेडकर ने सामाजिक कुरीतियां और भेद-भाव को मिटाने के लिए काफी संघर्ष किया.