मथुरा, आमतौर पर ब्रज के मन्दिरों में जन्माष्टमी की तैयारी एक सप्ताह पहले शुरू होती है लेकिन बल्लभकुल सम्प्रदाय के मन्दिरों में एक माह पहले से ही जन्माष्टमी की तैयारी शुरू हो जाती है। इस बार ब्रज के सभी मन्दिरों में 30 अगस्त को जन्माष्टमी मनाई जाएगी।
बल्लभकुल सम्प्रदाय के मन्दिरों में न केवल ठाकुर के वस्त्रों को आकर्षक रूप देने का क्रम शुरू हो जाता है बल्कि सोने चांदी के आभूषणों की सफाई इस प्रकार से की जाती है कि वे नये मालूम लगने लगें। लाला के पालने को अति आकर्षक तरीके से तैयार किया जाता है। इसके अलावा भोग सामग्री को इकट्ठा करने , उसकी सफाई और पिसाई, कुटाई आदि का भी काम शुरू हो जाता है। चूंकि अधिकांश सामग्री गाय के घी में बनाई जाती है इसलिए देहातों से गाय के शुद्ध घी को इकट्ठा किया जाता है। बल्लभकुल सम्प्रदाय की जन्माष्टमी अपनी शुचिता के लिए मशहूर है।
पुष्टिमार्गीय मदनमोहन मन्दिर एवं मथुराधीश मन्दिर जतीपुरा के सेवायत आचार्य ब्रजेश मुखिया ने बताया कि प्रसाद सामग्री बनाने के लिए आज वैदिक मंत्रों के मध्य भट्टी का पूजन हो गया है तथा आज से प्रसाद सामग्री का बनना प्रारंभ हो गया है। प्रसाद सामग्री के बनाने में शुचिता का विशेष ध्यान रखा जाता है। यह प्रयास किया जाता है कि प्रसाद बनने के बाद ठाकुर को अर्पण करने के पहले किसी की उसकी ओर दृष्टि न पड़े।
उन्होंने बताया आने अनजाने में पड़े ’’दृष्टिदोष’’ एवं गलत ’’भाव दोष ’’दूर करने के लिए भोग सामग्री को ठाकुर को अर्पण करने के पहले उसका धूप, दो बत्ती के दीप के साथ ही शंखोदय किया जाता है। शंखोदय में शंख में यमुना जल भरकर,उसमें तुलसी दल डालकर उसे वैदिक मंत्रो से अभिमंत्रित करते हैं इसके बाद उसे भेाग सामग्री पर छिड़का जाता है।
आचार्य ने बताया कि चूंकि मन्दिर में यशोदा भाव से सेवा होती है इसलिए जन्माष्टमी के दिन ऐसा माना जाता है कि मां यशोदा स्वयं अपने लाला को तैयार कर रही हैं। प्रातः विग्रह स्वरूप का अभिषेक वैदिक मंत्रों के मध्य होता है और उसके बाद ठाकुर का अभ्यंग होता है।अभ्यंग के लिए सूखें पिसे आंवले में चन्दन और इत्र मिलाकर लेप तैयार करते हैं जिससे ठाकुर को स्नान कराते हैं। इसके बाद ठाकुर का केशर जल एवं गुलाबजल स्नान होता है स्नान कराने के सभी पात्र सोने चांदी के होते हैं जो इतने साफ किये जाते है कि देखने में नये मालूम पड़ें। इसके बाद लाला को डोरिया की विशेष प्रकार की पोशाक धारण कराते हैं।
लाला को काजल आदि लगाकर नख से शिख तक हीरा,जवाहरात धारण कराए जाते है। लाला का पूरा श्रंगार होने के बाद मां यशोदा उन्हें ’’बघनखा’’ धारण कराती है। बघनखा सोने का एक ऐसा लाकेट होता है जिसके अन्दर शेर के नाखून को रखकर बन्द किया जाता है। इससे नजर नही लगती है और ऊपरी बाधा भी दूर होती हैं।इसके बाद लाला को कमलपत्र धारण कराकर उनका तिलक किया जाता है और फिर मां यशोदा अपने लाला को आरसी दर्पण दिखाती हैं फिर आरती होती है और मन्दिर के दरवाजों पर हल्दी और कुमकुम के पांच पांच थापे लगते हैं।इसके बाद ठाकुर का भोग आ जाता है तथा राजभोग आरती से प्रातःकालीन सेवा समाप्त हो जाती है।
सेवायत मुखिया के अनुसार शाम को लगभग आठ बजे उत्थापन होता है तथा शयन तक की सभी सेवाएं पूरी होने के बाद जन्म के पहले साढ़े आठ मंत्रों का वाचन होता है। रात 12 बजे बहुत छोटे लड्डू गोपाल का अभिषेक होता है और पोशाक धारण करने एवं तिलक के बाद महाभेाग आता है जिसमें पांच प्रकार के चावल, पंजीरी आदि होतीे हैं। लाला को पालना में विराजमान किया जाता है तथा आरती के बाद मन्दिर के पट बन्द हो जाते है। अगले दिन धूमधाम से नन्दोत्सव का आयोजन किया जाता है जिसमें मन्दिर के सेवायत नन्दबाबा बनते हैं तथा वे मिठाई, कपड़े, रूपए, फल आदि लाला के जन्म की खुशी में लुटाते हैं तथा वातावरण भावपूर्ण भक्ति से भर जाता है।